मंगलवार, 10 नवंबर 2015

इक्कीसवीं किस्तः दीवाला नहीं दीवाली

जी हाँ? कम आय और सीमित साधनों के बीच भी तब केे त्यौहारों पर दीवाला नहीं निकलता था बस प्यार और सद्भाव में डूब कर सबके दिल हिलते-मिलते नज़र आते थे। 

सच! क्या कहने थे बचपन की उस दीवाली के। महीने भर पहले से मिलजुल कर घर की साफ सफाई, रंग रोगन और सजावट। बाज़ार तब भी मिठाइयों और खेल खिलौनों की सजावटी दुकानों से अटे पड़े रहते थे परन्तु उन मिठाइयों और खिलौनों में चीनी (चाइनीज़) की बजाय गुड़ की सुगंध और मिट्टी की सोंधी महक ही नज़र आती थी। बहराइच के घंटाघर से लेकर पूरा चौक बाज़ार दुकानदारों और खरीदारों की भीड़ से भरा होता।

हमारे घर में अक्सर दीपावली पर कोई बड़ा (उस समय के लिहाज़ से) सामान, जैसे नया सोफा सेट या बड़े आकार का रेडियो आदि ज़रूर आता और जब वह सामान कुछ समय के लिये भी घर के बाहर अहाते में रखा होता तो उधर से गुज़रने वाले उन्हें निहारे बगैर नहीं रह पाते। और कइयों के मुख से तो तब बरबस यही निकलता...‘हाय..इत्ता बड़ा सोफा सेट...हाय इत्ता बड़ा रेडियो’...। निश्चय ही कुछ लोगों के लिये तब वह अजूबे जैसा ही होता था।

हमारे घर के सामने ही बच्छराज-बाबूलाल (कपड़ों के व्यापारी) की बड़ी सी आकर्षक कोठी थी और बगल में ही भव्य और आलीशान जयहिन्द कोठी। उन सभी कोठियों पर दीपावली के अवसर पर ऊपर से नीचे तक दीपमालाओं की सजावट देखते ही बनती  थी। और जब रात्रि में वहाँ सार्वजनिक रूप से पटाखों और फुलझडि़यों का ग्रांड शो शुरू होता तब उनसे घर के लोगों के साथ ही आसपास के छोटे-मोटे (जो पैसों की तंगी के चलते पटाखे नहीं खरीद सकते थे) लोगों का भी भरपूर मनोरंजन होता। तब हम पटाखों के शोर से प्रदूषण बढ़ने के खतरों से भी अंजान रहते।

.....पर आम दिन हो या कोई तीज-त्यौहार मेरी शरारतें और पिटाई के मौके कम होने को नहीं आते। एक बार मुझ बालक ने कहीं किसी से सुन लिया कि दीवाली पर पुराने खिलौने बेंचने से लक्ष्मी जी घर में नये-नये खिलौने और मिठाइयां लेकर  आती हैं, तो इस मुए के दिमाग में बात भीतर तक बैठ गई। अब घर वालों से तो इसकी इजाज़त मिलनी नहीं थी सो खुद ही मुन्ना भैया की अगुवाई में कुछ अपने जैसे छंटे हुए दोस्तों के साथ चुपके से घर के पुराने खिलौने इकट्ठे कर डाले। और घर के बाहर ही फुटपाथ पर लगी दुकानों के बीच एक चद्दर बिछाकर बैठ गये, खिलौने बेंचने।

एक दोस्त ‘सस्ते खिलौने ले लो...सस्ते खिलौने ले लो’ की आवाज़ें लगाता जा रहा था और मैं सभी आने-जाने वाले राहगीरों को ललचाई नज़रों से घूरे जा रहा था। अलबत्ता मुन्ना भैया गद्दी संभाले हुए थे। पर नाश हो आवाज़ लगाने वाले उस पापी दोस्त का। ससुरे की आवाज़ ग्राहकों तक पहुंची हो या न पहुंची हो मेरे मम्मी-पापा तक अवश्य पहुंच गई थी। और फिर वही हुआ जो होना चाहिये था। मुन्ना भैया और दोस्त लोग तो भनक पाकर खिसक लिये पर खिलौना बेंचते हुए रंगे हाथों पकड़ा मैं ही गया और फिर मेरी दीपावली तो सार्वजनिक रूप से मननी ही थी।

......उन दिनों त्यौहारों पर लम्बी छुटिटयों के चलते देर रात तक त्यौहार मनाने के बाद अगले ही दिन सुबह- सुबह स्कूल या दफ्तर जाने की  फिक्र भी नहीं होती थी। और दीपावली से भैया दूज/कलम-दवात पूजा तक कागज़, कलम को हाथ न लगाने वाले त्यौहारी नियम-शर्तों के चलते, लिखने-पढ़ने की छूट भी होती थी। ऐसे में त्यौहार का मज़ा कुछ और ही बढ़ जाता था....। 

दीपावली 11 नवम्बर,2015  (शेष अगली किस्त में) 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

बीसवीं किस्तः ऊँचे इरादों का जनाज़ा

न दिनों कक्षा 8-9 की पढ़ाई के दौरान ही पत्र-पत्रिकायें और बाल पाॅकेट बुक्स पढ़ते-पढ़ते मेरे भीतर का लेखक भी अंगड़ाइयां लेने लगा था। यद्यपि मेरे मझले भैया मुन्ना जी पहले से ही छुटपुट लेखन कर रहे थे अतः थोड़ा बहुत लेखन ज्ञान मुझे उनसे भी मिलने लगा था। उस समय छोटे आकार की बाल पाॅकेट पुस्तकें अठन्नी, एक रुपये में आसानी से मिल जाया करती थीं। और हम अपनी पाॅकेटमनी बचाकर जब न तब उन्हें खरीद लाते थे। 

इस तरह से धीरे-धीरे स्कूली पढ़ाई, संगीत और खेलकूद के बाद का हमारा बचा-खुचा समय अब लेखन और पाठन में ही बीतने लगा था। उन दिनों भूत-प्रेत, राक्षसों, राजा-महाराजाओं, जादू-टोने और परियों आदि की कहानियां खूब प्रचलित थीं। अधिकांश बाल पाॅकेट बुक्स की कहानियां इन्हीं सब के इर्द-गिर्द घूमती रहती थीं। जिन्हें पढ़ने में हमें बहुत आनंद आता था। ऐसी कहानियां पढ़ते-पढ़ते उन्हीं दिनों मैंने भी ‘अभागा राजकुमार’ नामक एक 60-70 पृष्ठों की तिलस्मी कहानी की बाल पाकेट बुक तैयार कर ली थी। मैं उसे बाजार में बिकने वाली अन्य पुस्तकों की तरह ही रंग-बिरंगी छपवाकर बाज़ार में बेंचना और ढेर सारे पैसे कमाना चाहता था पर ऐसा संभव कहां था। न किसी प्रकाशक का अता-पता, न प्रकाशन संबंधी कोई जानकारी या तमीज़। 

एक दिन मैं पुस्तकों की अपनी पांडुलिपि लेकर पिता जी के परिचित एक प्रिंटिंग प्रेस के आॅफिस ही पहुंच गया। मेरी व्यथा जानकर प्रेस वाले चाचा जी ने टालने के अंदाज़ में मुझे अगले हफ्ते कागज़ लेकर आने को कहा। फिर क्या था अगले ही हफ्ते मैं बाज़ार से 20-25 बिना रूल वाली काॅपियां खरीद लाया। उनके एक-एक करके पन्ने फाड़े और उन्हें पाकेट बुक्स के आकार में कैंची से छोटे-टुकड़ों में काटकर फिर से प्रेस वाले चाचाजी के आॅफिस जा पहुंचा। मेरे हाथों में काॅपी के कटे-फटे टुकड़े देखकर प्रेस वाले चाचाजी ने अपना माथा ही पकड़ लिया था। बाद में जब उन्होंने प्रेस और पुस्तक प्रकाशन की कुछ प्राथमिक जानकारियां मुझे दीं तब मेरे नासमझ दिल और दिमाग को पता चला कि मैंने काॅपियां फाड़-फाड़ कर अपनी सारी जमा पूंजी बर्बाद कर डाली थी और उसका रिजल्ट भी कुछ नहीं मिलने वाला था। कुछ दिनों बाद माँ-बाबू जी और बड़े भाइयों आदि से मैंने रो-गाकर और डांट खा-खाकर कुछ और पैसे इकट्ठे किये। प्रेस वाले चाचाजी के कहे अनुसार कागज़ खरीदे और पुस्तक की पांडुलिपि लेकर पुनः प्रेस जा पहुंचा। 

प्रेस वाले चाचाजी ने मुझसे महीनों प्रेस के चक्कर लगवाने के पश्चात अंततः लागत के पैसों में ही मेरी पुस्तक छाप कर मेरे हाथों में थमा दी थीं। शायद वह दिन मेरे लिये सबसे अनूठा और आनंदित करने वाला दिन था। यद्यपि पुस्तकें बेंचकर खूब पैसा कमाने का मेरा सपना पूरा नहीं हो सका था। मैंने दो-चार बुक स्टालों के चक्कर लगाये परन्तु मेरी ब्लैक एंड व्हाइट पुस्तक अपनी दुकान पर रखकर कौन दुकानदार भला अपनी दुकान की शोभा खराब करता। काफ़ी मशक्कत के बाद एक-एक रुपये में 5-10 प्रतियां कुछेक जान-पहचान वालों ने खरीदी, बाकी मुफ़्त में ही बंट गईं या इधर-उधर कहीं गुम हो गईं। मेरे ऊँचे इरादों का जनाज़ा बेशक निकल गया था पर इन सबके बावजू़द, मेरा बाल पाॅकेट बुक का लेखक कहलाने का सपना तो पूरा हो ही गया था।  

03 नवम्बर,15 
(शेष अगली किस्त में) 

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

उन्नीसवीं किस्त: बचपन का दशहरा

ता नही तब हमारा बचपन था इसलिये हम प्रत्येक त्यौहार का भरपूर आनन्द उठा पाते थे या उस समय के त्यौहारों की ख़ुशबू ही ऐसी थी कि उनमें कोई भी मदहोश हो जाता था। ख़ैर सच जो भी हो हम उस आनन्द को भला कैसे भूल सकते हैं जिनमें हमारी हर ख़ुशी के समय हमें अपने माता-पिता, भाई-बहनों और प्यारे-प्यारे मित्रों का संग-साथ मिलता था और हम हर त्यौहार का भरपूर आनन्द उठा पाते थे। तब हम हिन्दू-मुस्लिम, सिख या ईसाई नहीं थे। न छोटी जात, न बड़ी जात, न अगड़े और न पिछड़े। हम तो बस अपनी ख़ुशियों में एक-दूसरे को शरीक करने वाले बच्चे भर थे। हम सब मिलकर ही हरेक पर्व का आनन्द उठाते थे। अब से अलग हटकर तब हमारे शहर बहराइच में शहर से दूर रामलीला मैदान में 10 दिन तक भव्य रामलीला का आयोजन होता था। रामलीला मैदान के चारों ओर दर्शक और बीच के पूरे मैदान में विभिन्न पात्रों द्वारा तरह-तरह की वेशभूषा में रामलीला का मंचन। भारी भीड़ के बीच हम रामलीला के एक-एक दृश्य का भरपूर आनन्द उठाते थे। दशमी के दिन बड़ा-सा रावण, ढेर सारी आतिशबाजि़यों के बीच जब   धू-धू करके जलता, तब उसे जलता हुआ देखकर हमें इस बात की तसल्ली होती कि अब दुनिया सेे सारे पाप सदा के लिये मिट जायेंगे।

ऐसे त्यौहारों पर घर से लेकर रामलीला मैदान तक के लम्बे रास्ते पर खेल-खिलौनों और खाने-पीने की सैकड़ों दूकाने होतीं। पूरा परिवार भीड़ के चलते रास्ते भर एक-दूसरे की अंगुली कस कर पकडे़ रहता। रास्ते भर हम कुछ-न- कुछ खाते-पीते, दो-चार रुपये में ही ढेर सारे खिलौने ख़रीदते या बाइस्कोप आदि देखते और त्यौहार का पूरा आनन्द उठाते हुए आते और जाते। हम भीड़ के साथ ही वहां तक पहुंचते और उसी तरह से वापस आते। कभी पैदल तो कभी रिक्शे और कभी इक्के या तांगे पर बैठकर वहां तक पहुंचने का कुछ अलग ही आनन्द मिलता था। उस दिन घर में भी कुछ अलग हट कर पकवान आदि बनते। यही वजह थी कि हमें पूरे साल इन त्यौहारों का इंतज़ार रहता। 

त्यौहारों पर माता-पिता के पास भी हमारे लिये पूरा समय होता। हमें भी लम्बे समय की छुट्टी तो मिलती ही थी, होमवर्क आदि का ऐसा कोई बोझ भी नहीं होता था कि हमें त्यौहार, तनावों के बीच मनाना पड़े या सारा त्यौहार घर में ही बैठकर वाट्सअप या फेसबुक पर एक-दूसरे को शुभकामना संदेश कट-पेस्ट करते हुए ही बीत जाए। त्यौहार पर न कोई नकली व्यवहार था और न कोई काल्पनिक ख़ुशी। तब सब कुछ बस ओरीजनल ही होता था।

22 अक्तूबर,15 
(शेष अगली किस्त में)

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

सत्रहवीं किस्तः किस्से-कहानियों का वो दौर..

चपन से ही हमें किस्से, कहानियाँ पढ़ने का शौक था। उस समय पराग, बालक आदि जैसी बाल पत्रिकाओं के हम दीवाने हुआ करते थे। तब बहराइच में पत्रिकायें मिलने का प्रमुख स्थान रेलवे स्टेशन ही था। घर से 4-5 किलोमीटर दूर होने के बावजूद हम दोनों भाई (मैं और मुझसे बड़े मुन्ना भैया) महीना शुरू होते ही अपनी जेब खर्च के लिये मिले पैसे लेकर पत्रिकायें खरीदने के लिये पैदल ही रेलवे स्टेशन की ओर चल देते थे। और पत्रिका खरीदने के बाद घर वापसी तक हमारी उन्हें पहले पढ़ लेने की चाह में रास्ते भर छीना झपटी चलती रहती। पत्रिकाओं के अलावा, हमारे स्कूल के हिंदी के श्रीवास्तव मास्साब भी हमें अक्सर खाली पीरिएड में अच्छी-अच्छी प्रेरक कहानियां सुनाते। इसके अलावा जब बच्चों का पढ़ने का मूड न होता तब भी वे श्रीवास्तव मास्साब से कहानी सुनाने की जि़द कर बैठते और बच्चों की इच्छा के सामने उन्हें भी झुकना ही पड़ता।  


माँ, बाबूजी, बड़ी दीदी, मौसी, नानी आदि से भी हमें खूब कहानियां सुनने को मिलतीं। बाबूजी की गोद के इर्द-गिर्द सोते हुए हम उनसे देर रात तक, राजा-रानी, जीव-जन्तुओं आदि की सामाजिक व जादूगरी भरी कहानियां सुनते रहते। कभी नई तो कभी वही पुरानी कहानियां। पर प्रायः बार-बार एक ही कहानी सुनने पर भी हम कभी बोर नहीं होते और उन्हें सुनते वक्त हम प्रेरणा पाने सहित ज्ञान और मनोरंजन की दुनिया में रात भर गोते लगाते रहते। बाबूजी जब कहानी सुनाने बैठते, तब हम ही क्या आस-पडा़ैस के बच्चे भी उनसे चिपक कर पूरी तन्मयता से कहानी सुनते। स्कूल से आकर पढ़ाई खत्म होने और रात के भोजन के बाद प्रायः आये दिन कहानियों का जो दौर चलता वह काफी देर तक चलता रहता। पड़ौसी भी अपने बच्चों को हमारे घर में देर रात तक छोड़कर पूरी बेफिक्री के साथ अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते। न कहीं कोई डर, न संशय। अक्सर हमें गांव के अंध विश्वास, भूत-प्रेत वाली कहानियां भी सुनने को मिलतीं। तब हम भाई-बहन आदि डर के मारे एक-दूसरे से ज़ोर से चिपके रहते। और ऐसी कहानियां सुनने के बाद जोर की टट्टी-पेशाब लगने के बावजू़द हमारी अकेले बाथरूम या टायलेट तक जाने की हिम्मत नहीं होती। 

मेरे मुन्ना भैया को तो मनगढ़न्त कहानियां सुनाने में मानों महारथ ही हासिल थी। उनकी कहानियां रोने-रुलाने वाली अर्थात अत्यन्त मार्मिक होती थीं। उन्हें सुनते वक्त मेरी आंखें नम हो आती थीं और कहानी के अंत तक तो मेरा रोते-रोते बुरा हाल हो जाता था। जब मेरा रोना नहीं रुकता तो प्रायः भैया टीवी के किसी आज के घारावाहिक की तरह ही उसका एंड भी बदल देते थे या कहानी के पात्र ही बदल कर कहानी को एकदम नया मोड़ दे देते थे। कई बार मिन्नत करने पर वह कहानी को दुखांत से सुखांत में बदल कर उसे खुशनुमा भी बना देते थे पर कहानी दूरदर्शन के किसी सोप ओपेरा की तरह लुढ़कते-पुढ़कते महीनों ख़त्म होने का नाम ही न लेती

यही हाल मेरा भी था और जब उन्हें कहानी सुनाने का मुझको  मौका मिलता था तब मैं भी उनके साथ कुछ इसी तरह का सलूक करता था। 



02 सितंबर,15 (शेष अगली किस्त में) 

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

सोलहवीं किस्तः कैमिस्ट्री के टीचर के साथ मेरी कैमिस्ट्री...

हराइच के जीआईसी में नौवीं क्लास में हमारे केमिस्ट्री के मास्टर साब श्री मुनव्वर अली जी हुआ करते थे। उनका पढ़ाने का अनूठा अंदाज़ था। हँसी-हँसी में ही वह केमिस्ट्री जैसे कठिन विषय को भी इतनी सरलता से समझा जाते थे कि मुझ जैसे कम अक्ल छात्र के दिमाग में भी कुछ न कुछ रसायन भर ही जाता था। वह मुझे पढ़ाई के कारण न सही, कला की वजह से ही सही, पर मानते बहुत थे। बेशक जब मैं कभी अधूरा होमवर्क करके आता तो वह मेरे कान उमेठते हुए मज़ाक-मज़ाक में ही यह ज़रूर कहते, ‘क्यों रे किशोर कल क्या ढपालीपुरवा गाना गाने गये थे जो होमवर्क नहीं कर पाये?’ और कक्षा में हंसी की फुलझडि़यां छूट पड़तीं। हालांकि बाकी बच्चों के मामले में वह इतना भी विनम्र नहीं होते थे और किसी का होमवर्क न हो पाने या अधूरा होने पर वह उसकी अच्छी-खासी क्लास ले बैठते थे। उनके अच्छे व्यवहार एवं पढ़ाने के बेहतरीन ढंग के चलते ही मैं उनके घर ट्यूशन पढ़ने भी जाने लगा था। साल के अंत में पिताजी का तबादला झांसी हो गया तो वह झांसी शिफ्ट हो गये थे। पर हम सभी अभी भी बहराइच में ही पढ़ाई का सत्र पूरा होने की इंतज़ारी में थे। इस बीच मुनव्वर अली मास्साब जी की तीन-चार महीने की फीस भी मुझ पर चढ़ गई थी। वह हमारी मज़बूरी जानते थे अतः उन्होंने कभी फीस के लिये मुझे टोका भी नहीं और बिना बाधा मुझे पढ़ाते रहे। बाद में अचानक जब हम सभी झांसंी के लिये चलने लगे तब भी मास्साब ने अपनी ट्यूशन फीस का कोई जि़क्र नहीं किया। 

बहराइच से झासी आने के बाद फिर कभी हमें न बहराइच जाने का कभी कोई मौका मिला और न हम मास्साब का उधार ही चुकता कर पाये। धीरे-धीरे यह बात मेरे जेहन से भी निकलती चली गयी। बड़ा होने और नौकरी पर लग जाने के बाद एक दिन अचानक ही जब कहीं बहराइच का कोई जि़क्र उठा तो मुझे मुनव्वर अली मास्साब और उनकी फीस की याद आयी और मैं बेचैन हो उठा। मैंने बहराइच के अपने दोस्तों और यहां तक कि जीआईसी के कुछ अध्यापकों और प्रिंसिपल साहब तक को पत्र लिखकर उनके बारे में जानकारी चाही पर कहीं से भी मुझे उनके बारे में कोई सुराग हाथ नहीं लग सका। मैं अपनी कमाई में से मास्साब का उधार ब्याज सहित चुकता कर उनके ऋण से मुक्त होना चाहता था, पर ईश्वर ने कभी मुझे इसका मौका ही नहीं दिया और मैं हाथ मलता रह गया था। काफी दिनों बाद मैंने पुनः एक बार मास्साब जी को ढूंढ़ने की कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी। हां कुछ दिनों बाद एक दिन किसी मित्र के ज़रिये काफ़ी दिनों पूर्व ही उनका इंतकाल हो चुकने की खबर मुझे ज़रूर मिली थी। तब मैं घंटों उन्हें यादकर आँखों में आंसू लिये उदास बैठा रहा था। 

24 जुलाई,15 (शेष अगली किस्त में) 

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

पन्द्रहवीं किस्तः अधूरी फिल्में पूरा मज़ा...

हराइच में हमारे सरकारी क्वार्टर के सामने तब बच्छराज-बाबूलाल की बड़ी सी कोठी हुआ करती थी। घर के एकदम बगल में एक ओर जय हिंद कोठी; जिसमें नीचे थोक कपड़ों की अनेक दूकानें और ऊपर कोठी के मालिक तथा अनेक किरायेदारों का बसेरा था। घर के एक ओर बड़े से अहाते में सुन्दर सा ओंकार टाकीज बना हुआ था। यह सिनेमाहाल उसके मालिक के नाम पर ही था, जिन्हें हम ओंकार चाचा के नाम से जानते थे। सिनेमाहाल के अहाते में ही एक छोटी सी दुमंजिली मार्केट भी थी। ऊपर लाज और नीचे पान, चाय-नाश्ते आदि की दूकानों के अलावा एक छोटा सा बुकस्टाल भी था, जहां अमूमन फिल्मी किताबें या पत्रिकायें मिलती थीं। किस्सा तोता मैना, राशिफल, तीज-त्यौहारों की जानकारी वाली पुस्तकों और गुलशन नंदा आदि जैसे प्रसिद्ध लेखकों के उपन्यासों के अलावा वहां दो-दो, चार-चार पन्नों वाली फिल्मी गीतों की फोल्डरनुमा पुस्तकें भी मिलती थीं। हम (मैं और मेरे मुन्ना भैया) अक्सर उन्हीं को खरीदकर उनसे नये-नये गीत याद करते थे। 

अन्य लोगों की तरह ही ओंकार चाचा भी  हमारी गायिकी से सदा प्रभावित रहते थे। इसी कारण अक्सर उनकी मेहरबानी से हमें उनके सिनेमाहाल में चल रही नयी-नयी फिल्मों के कुछ टुकड़े मुफ्त में देखने को मिल जाते थे। उन टुकड़ों में ज़्यादातर वो गाने होते थे, जो हमें गाने के लिये तैयार करने होते थे। सिनेमाहाल में धुसने की शर्त यह होती थी कि हमें बाहर निकलकर पहले ओंकार चाचा को वह गाना गाकर सुनाना होगा। 

अक्सर जब हम सिनेमाहाल में कोई गाना या सीन देखने को घुसते, तब हमारा मन वहां ऐसा रम जाता कि सिनेमाहाल से बहार निकलने का मन ही नहीं होता था। हमें लगता था कि हम पूरा सिनेमा देखकर ही बाहर निकलें पर बुरा हो गेटकीपर रफ़ीक (शायद यही नाम था) अंकल का जो गाना खत्म होते ही हमें सिनेमाहाल से दूंढ़कर बाहर निकाल लाते थे। कई बार जब वह हमें सिनेमाहाल से बाहर निकालने के लिये अंधेरे में टार्च दिखाते हुए भीतर प्रवेश करते, तो हमारी घिघ्घी ही बंध जाती थी और हम उनकी पकड़ में आने के डर से अंधेरे में छिपने की कोशिश करने लगते पर कामयाबी अक्सर उन्हीं के हाथ लगती। अंततः वह हमें खोज ही लेते और पूरी फिल्म देखने के हमारे मनसूबे पर पानी फिर जाता। हम उन्हें मन ही मन गरियाते ज़रूर परन्तु इसमें उनका भी दोष नहीं होता था, दरअसल उन्हें तो पिताजी और ओंकार चाचा की ओर से ही आदेश मिला होता था कि हमें सिनेमाहाल में ज़्यादा पसरने का मौका न दिया जाये। इसके बावजूद हम टुकड़े-टुकड़े में ही सही हफ्ते-दो हफ्ते में पूरी फिल्म का मजा उठा ही लेते थे..
07 जुलाई,15         (शेष अगली किस्त में)   

रविवार, 5 अप्रैल 2015

चौदहवीं किस्तः जूनियर किशोर कुमार और मैं..

हराइच के पास रिसिया नामक कस्बे में भी संगीत के शौकीन लोगों की कमी नहीं थी। उन दिनों वहां गीत-संगीत के माध्यम से एक चेरिटी शो का आयोजन किया गया था, जिसमें मैं भी आमंत्रित था। मेरे संगीत के मास्टर श्री श्रीवास्तव जी मुझे वहां लेकर गये थे। उस कार्यक्रम में श्रोताओं की भारी भीड़ थी। मेरे जीआईसी के संगीत के शौकीन हमारे प्रिंसिपल श्री वसीमुल हसन रिज़वी साहब भी वहां अपने किन्हीं मित्रों व रिश्तेदारों के साथ मौज़ूद थे। पर शायद उन्हें मेरा इस तरह के कार्यक्रमों में जगह-जगह जाना उन्हें पसंद नहीं था, अतः उन्होंने वहां मेरे पहुंचने पर कोई खास प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। अलबत्ता वो हमारे संगीत के गुरू जी से भी कुछ अनमने भाव से ही मिले। उस समारोह में मुंबई और लखनऊ से भी अनेक बेहतरीन गायक कलाकारों को बुलाया गया था। उनमें मुंबई से जूनियर किशोर कुमार भी आमंत्रित थे, जो शक्ल-सूरत और हाव भाव से तो किशोर कुमार जैसे थे ही किशोर कुमार के गाने भी बहुत खूबसूरती से पेश करते थे। कलाकारों के बीच एक बालक किशोर कुमार मैं भी था परन्तु मैं तो अपनी पतली आवाज़ के चलते लता जी के गाने ही ज़्यादा गाता था और आयोजक भी प्रायः मुझे इसी वजह से संगीत के कार्यक्रमों में आमंत्रित करते थे।

कार्यक्रम के दौरान जहां जूनियर किशोर कुमार ने उस समय के किशोर कुमार के हिट गीत बेहतरीन अंदाज़ में प्रस्तुत किये वहीं मेरी प्रस्तुति भी कम ज़ोरदार नहीं रही। उस दिन जूनियर किशोर कुमार ने मेरे गानों पर खुश होकर मुझे पूरे 21 रुपये ईनाम स्वरूप प्रदान दिये। तब 21 रुपयों की कीमत आज की तुलना में बहुत ही ज़्यादा थी। मैं उनसे यह राशि नहीं लेना चाहता था पर स्टेज पर थोड़ी-बहुत आना-कानी, भागम-भाग और श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अंततः मुझे उनके हाथों वह पुरस्कार राशि लेनी ही पड़ी। मुंबई के इतने बड़े कलाकार के हाथों ईनाम मिलने सेे मेरी खुशी उस वक़्त काफी बढ़ गई थी। मुझे लगा कि जब इतना बड़ा कलाकार मुझ साधारण से बच्चे के गाने पर इतना बड़ा ईनाम दे सकता है तो मुझे भी उस बड़े कलाकार का कुछ सम्मान करना चाहिये। और इस तरह से जब जूनियर किशोर कुमार पुनः अपना एक गाना समाप्त करके वापस आने को हुए तो मैं भी उनके गाने पर खुश होकर उनकी हौसला आफ़जाई के लिये उन्हें ईनाम देने मंच पर पहुंच गया था। जब मैंने उनकी ओर अपना हाथ बढ़ाया और उन्होंने मेरे हाथ से एक रुपये का नोट लेकर दर्शकों को दिखाते हुए उनकी ओर लहराया तो मेरी इस मासूमियत पर पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। दरअसल मैंने उन्हीं के दिये रुपयों में से एक रुपये का नोट निकालकर उन्हें पुरस्कार स्वरूप देना चाहा था। बाद में उन्होंने मुझे वह नोट ज़बरन वापस करते हुए अपने सीने से लगा लिया था।  

05 अप्रैल,15 (शेष अगली किस्त में)  

रविवार, 22 मार्च 2015

तेरहवीं किस्तः नेपाल के वो दोस्त..

चपन के उसी दौर में बहराइच से शुरू होकर मेरे गायन की चर्चा अब आसपास के शहरों में भी होने लगी थी। बहराइच से कुछ ही दूरी पर नेपाल का शहर नेपालगंज पड़ता था। उ. प्र. के नज़दीक होने के कारण वहां पर हिंदी बोलने वालों का बाहुल्य था। जनमाष्टमी और होली जैसे त्यौहारों पर वहां भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भव्य आयोजन होता रहता था। वहां के कार्यक्रमों में जाते रहने से बचपन में ही मेरे कई सारे नेपाली मित्र बन गये थे। उनमें से कुछ बेहतरीन गायक भी थे। मेरे एक वरिष्ठ मित्र को तो किशोर कुमार के गानों में महारथ हासिल थी। उस समय की फिल्मों के किशोर के हिट गाने उनके मुंह से सुनकर श्रोतागण झूम जाते थे। पर उनकी और वहां के लोगों की नज़र में मैं भी कुछ कम नहीं था। 

एक बार जनमाष्टमी के दिन वहां काफी सुंदर कार्यक्रम का आयोजन हुआ। बालक किशोर (मेरे) द्वारा लता जी की आवाज़ में गाये गये गीतों की भी खूब प्रशंसा हुई। मेरे नेपाली दोस्तों से मुझे भरपूर दाद मिली। कार्यक्रम के बाद भोजन व प्रसाद की भी सुंदर व्यवस्था थी, सो कई घंटों का भूखा होने के कारण मैंने छक कर खूब सारा खा लिया। इससे मेरा हाज़मा कुछ बिगड़ गया। अचानक पंडाल के बाहर ज़ोरदार बारिश भी शुरू हो गई थी। उस समय तक वहां आयोजकों के अलावा मेरे गिने-चुने मित्र ही शेष रह गये थे। जब कुछ ही देर में मेरे पेट ने गुड़-गुड़ करना शुरू किया तो मुझसे रहा नहीं गया। बेशक मैं उस समय बहुत छोटा था पर मेरी तब भी कुछ इज़्ज़त तो थी ही। शर्मवश मैंने किसी और से तो कुछ भी नहीं कहा पर चुपचाप जाकर मैंने अपने एक नेपाली दोस्त के कानों में अपनी बात ज़रूर डाल दी। मेरी स्थिति का अंदाज़ लगते ही मेरा वह दोस्त दौड़कर कहीं से एक छाता ले आया। बाहर घोर अंधेरे के बीच दो-तीन दोस्त मिलकर हमें पास के ही एक पोखरे तक ले गये। वहां एक दोस्त छाता खोलकर मुंह घुमाकर खड़ा हो गया और बाकी डंडे लेकर मेरी निगरानी में लगे रहे। क्योंकि वहां जंगली जानवरों का भी कुछ खतरा था। इस प्रकार से बेफ़िक्ऱ होकर पूरी निडरता के साथ मैं अपने ज़रूरी काम को अंजाम दे पाया। 


मेरे काफ़ी ख़ोजने के बावजू़द उस समय के उन नेपाली दोस्तों का तो अब-तक कोई अता-पता नहीं चला पर आज जीवन के इस मोड़ पर नये बने नेपाली दोस्तों में ही मैं बचपन के अपने उन दोस्तों की छवि पाकर तसल्ली कर लेता हूं।

22 मार्च,15 (शेष अगली किस्त में)  

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

बारहवीं किस्तः होली जो भुलाये न भूले...


हराइच की बचपन की वो मदमस्त होली भला हम कैसे भूल सकते हैं, जिसमें रंग और अबीर-गुलाल में सभी एक रंग हो जाते थे। तब न कोई हिंदू होता था न मुस्लिम और न सिक्ख या ईसाई। सभी बस हमारे दोस्त और अड़ोसी-पडा़ेसी ही होते थे। बहराइच के घंटाघर के चौराहे की होली आज भी याद आती है तो मन उड़कर वहीं पहुंच जाने को आतुर हो जाता है। परंपरा अनुसार बहराइच में होली का रंग तो बसंत पंचमी से ही हवा में उड़ने लगता था परन्तु होलिका दहन के एक दिन पहले जमकर होली खेली जाती। होली के दिन आधे दिन तक खूब ज़ोरों की होली होती और फिर बारह-एक बजे तक सभी अपना रंग छुड़ाने बैठ जाते। नहा-धोकर हम नये कपड़े पहनते। कपड़े ही क्या होली के दिन तो हमारी पैंट-शर्ट ही नहीं चड्डी, बनियाइन और जूते-मोेजे तक नये होते। शहर में विशेषकर, चौक बाज़ार और घंटाघर के किनारे-किनारे खूबसूरत बाज़ार सजते और तरह-तरह के रंग-बिरंगे खिलौने आदि बाज़ारों में दिखाई पड़ते। उस दिन हम बढियां-बढियां कपड़े पहन कर शहर के अपने यार-दोस्तों और सगे सम्बन्धियों से मिलते-जुलते थे और आपस में गुजिया आदि बांटकर खाते और मौज़ करते थे..

होली के दिन घंटाघर के मैदान में हज़ारों लोगों के बीच हर बार सांस्कृतिक कार्यक्रम का भव्य आयोजन ज़रूर होता। और उसमें मेरे गानों पर हज़ारों लोग झूमते और थिरकते। उस दिन ‘आज बालक किशोरवा का प्रोगराम है’ कहते हुए ज़्यादातर दूकानदार अपनी दूकानें जल्दी बंद कर देते थे। प्रायः इस अवसर पर लखनऊ से आर्केष्ट्रा भी बुलाया जाता। उनमें कभी-कभी आज के प्रसिद्ध ग़ज़ल व भजन गायक श्री अनूप जलोटा भी अपनी मद-मस्त आवाज़ का जादू बिखेरने आते थे। तब वह देखने में राजेश खन्ना या जितेन्द्र जैसे किसी अभिनेता से कम नहीं लगते थे और उनके मुंह से जब किशोर कुमार के हिट गाने फूटते तो बस मज़ा ही आ जाता। पर मेरे लता जी की आवाज़ में गाये जाने वाले गानों की भी कोई कम पूछ नहीं होती थी। यह बहराइच वालों का मुझ बालक पर अत्यधिक प्रेम और स्नेह ही था कि उन बाहरी गायकों के मुझ से किसी भी तरह से कमतर न होने के बावजूद मेरे गानों की ज़्यादा फरमाइश होती और मेरे एक-एक गाने पर प्रशंसक और नगर के सेठ आदि ईनामों की बौछार कर देते। प्रायः हर गाने के बाद किसने मेरे गाने पर क्या ईनाम दिया इसकी पूरी लिस्ट पढ़ी जाती। जबकि बाहरी कलाकारों को बेहतर होने के बावज़ूद निराश होना पड़ता। 

एक बार तो लखनऊ का बहुत बढ़ियां आकेष्ट्रा आने के बावजूद लोग बार-बार मेरे गानों की ही फरमाइश करते रहे और हर गाने पर ईनामों की बौछार करते रहे। इससे मामला कुछ बिगड़ गया। लखनऊ के कलाकार अत्यधिक बिगड़ गये और उन्होंने यह कहते हुए अपना आर्केष्ट्रा मंच से हटा लिया कि यदि आप लोगों को इसी बच्चे को सुनना है और इसी को ईनाम देना है तो हमें बुलाने की क्या ज़रूरत।’ बाद में बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाकर फिर से मंच पर बैठाया गया। 

वो हज़ारों लोगों और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मेरा गाना गाना यद्यपि आज बहुत पीछे छूट गया है परन्तु कानों में समायी वह गूंज आज भी बाहर आने को तैयार नहीं।
(फोटोग्राफ्स बहराइच के दोस्त श्री सुरेश अग्रवाल के सौजन्य से..)

06 मार्च,15 (शेष अगली किस्त में)  

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

ग्यारहवीं किस्त: न शरारतें घटीं और न पिटाई...

ज से उलट यूं तो कलाकारी और पढ़ाई के साथ मेरा पूरा बचपन ही शरारतों से भरा-पूरा रहा परन्तु जीवन की कुछ शरारतें ऐसी भी रहीं जो आज भी याद आती हैं तो मुझे अपने आप पर कुछ शर्म सी महसूस होने लगती है। वो बात अलग है कि मेरी शरारतें अकेले की नहीं होती थीं और उनमें मेरी मित्र मंडली व मेरे स्व. भाई मुन्ना जी का भी थोड़ा बहुत योगदान रहता था परन्तु प्रायः जब-जब पिटने का नंबर आता तो मैदान में अकेला मैं ही अपने आपको खड़ा पाता। 

उन दिनों पिता जी का पड़ोस के एक छोटे से रेस्टारेंट में खाता चलता था यानी कि आपातकाल में अक्सर वहां से मेहमानों आदि के लिये चाय-नास्ता आता और फिर एक साथ ही महीने भर का हिसाब होता। उस रेस्टोरेंट के समोसे और आलू-बण्डे बहुत प्रसिद्ध थे। 11-12 बजे के आस पास जब वो तैयार होते तब उन्हें खाने वालों की लूट सी मच जाती, ऐसा लगता मानों वह सब फ्री में बंट रहा हो। 

एक दिन हम कुछ सहपाठी स्कूल से जल्दी छूट गये। हम छः दोस्त घर के सामने स्थित पोस्ट ऑफिस की साढ़ियों पर आकर बैठ गये थे। उसी समय जब अचानक हमारी नाकों में पास के रेस्टोरेंट से समोसे और आलू बण्डे के बनने की खुशबू घुसी तो हमारा दिल उन्हें गरमा-गरम खाने को मचल उठा। उस समय हमारे पास में न तो पैसे थे और न ही अपने आपको उन्हें खाने से रोक पाने की ताक़त ही। फिर आखिर हम करते भी क्या। अचानक हमारे दिमाग का कीड़ा कुलबुलाया और हमारे खुराफ़ाती दिमाग ने एक नए आइडिये को जन्म दे डाला। मैंने अपनी कॉपी से आधा पृष्ठ निकाला उस पर 6 समोसे भेजने की टिप्पणी लिखकर नीचे पिता जी के साइन मार दिये। एक सहपाठी को यह सिखाकर कि यह पर्ची देकर रेस्टोरेंट वाले अंकल से बोलना कि एकाउंटेंट साहब के घर मेहमान आये हैं अतः उन्होंने 6 गरम समोसे तुरन्त मंगवाये हैं, रेस्टोरेंट की ओर भेज दिया  हमारी चाल कामयाब रही और हमें बिना किसी बाधा के गरमागरम समोसे खाने को मिल गये। पर एक-एक समोसे से जब हमारा मन नहीं भरा तो अगली बार मैंने दोस्तों की ताज़ी सलाह पर आलू बण्डे की भी पर्ची काटकर एक दूसरे सहपाठी के हाथों वहां भिजवा दी। हम दूसरी बार भी अपनी योजना में कामयाब हो गये थे। रेस्टोरेंट वाले अंकल को सचमुच यही लगा कि एकाउंटेंट साहब के घर में कोई खास मेहमान आये हुए हैं और उनके ज़ोरदार स्वागत में सभी लगे हुए हैं। पर कहते हैं न कि लालच बुरी बला है। जब तीसरी बार हमने फिर से एक-एक समोसे की चाहत में किसी अन्य सहपाठी को वहां भेजा तो कुछ ही देर में हम सबके होशों के फाकता होने की नौबत आ गई। 

अंतिम बार समोसों के स्थान पर उस लड़के का कान पकड़े रेस्टोरेंट वाले अंकल जी भी हमारे सामने थे। हमारी उस्तादी का कचरा निकल गया था। अपनी पोल-पट्टी खुलने की खबर आते ही हमारे बीच अफ़रा-तफ़री सी मच गई। मौका-ए-वारदात से अन्य सभी तो भाग लिये, पकड़ में आया तो हर  बार की तरह मैं ही। और फिर जब शाम को भरी महफिल में रेस्टोरेंट वाले अंकल के सामने मेरी पेशी हुई तो आगे के हाल का अंदाज़ कोई भी सहज ही लगा सकता है।

01 फरवरी,15 (शेष अगली किस्त में)  

बुधवार, 14 जनवरी 2015

दसवीं किस्त: दूल्हे मियां की ताजपोशी...

धीरे-धीरे हम कुछ बड़े तो हो रहे थे परन्तु बाल सुलभ शैतानियाँ अभी भी हमारे भीतर से जाने का नाम नहीं ले रही थीं। बड़ों की नकल व इधर-उधर की अच्छी-बुरी घटनायें हमें खुद भी वैसा ही करने को प्रेरित करतीं। बेशक बाद में पिटाई भी होती परन्तु हर पिटाई के बाद हम नये सिरे से उठकर अगली शैतानी के लिये तैयार हो जाते थे। एक दिन हम सपरिवार पिताजी के मित्र की लड़की की शादी में गये थे। शादी में दूल्हे-दूल्हन की शान-शौकत, ताज़पोशी और रुतबे को देखकर मैं सबसे अधिक प्रभावित हुआ। बस फिर क्या था अगले ही दिन से मेरे कोमल दिमाग में खुराफात की लहरें हिलारें लेने लगीं। 

एक दिन जब घर के सभी बड़े लोग पड़ोस के साथियों के साथ कोई फिल्म देखने गये थे, हमने अपने घर के अहाते में एक दूसरी ही फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी। मेरे मझले भैया मुन्ना जी पंडित जी बने, मैं दूल्हा और पडा़ेस की बिन्नू (बदला हुआ नाम) दुल्हन। आस-पडा़ेस के कुछ मजे़ लेने वाले मेरे हम साथियों में से कुछ बराती बन गये तो कुछ घराती। दूल्हा-दुल्हन ईंट-पत्थर जोड़कर बनाये गये सोफ़े पर सवार हुए और पंडित जी शादी के मंत्रोच्चारण में व्यस्त हो गये। मैंने कोई कच्ची गोलियां तो खेली नहीं थीं। शादी की सारी रस्में अच्छी तरह से बिना किसी विघ्न के निपट जायें इसका मैंने पहले से ही पक्का इंतज़ाम कर रखा था। बेशक मुझे शादी का अर्थ नहीं मालूम था पर यह ज़रूर पता था कि सात फेरों और मांग में सिंदूर डालने के बाद ही शादी पूर्ण होती है। 

पंडित  बने मुन्ना भैया मंत्रों के स्थान पर अगड़म-बगड़म बोले जा रहे थे और मैं बिन्नू के साथ तेजी से फेरे लेने में व्यस्त था। तेज़ी इसलिये भी थी कि कहीं अधूरे फेरों के बीच कोई लफड़ा न हो जाये और शादी बरबादी में बदल जाये। बिन्नू भी पैर में दर्द के बावज़ूद तेज़ी से चलते हुए मेरा पूरा साथ दे रही थी। परन्तु बुरा हो उस एक साथी का... इधर मैंने बिन्नू की मांग में अपनी मां की सिंदूर की पूरी की पूरी डिबिया उड़ेली और उधर बीच सिनेमा से उठाकर वह मेरी माँ और पापा जी को वहां का दृश्य दिखाने को बुला लाया। माँ और बाबू जी को देखते ही एक ओर मुन्ना भैया जहां अपनी पंडिताई छोड़कर भागे तो वहीं दूसरी ओर सारे घराती और बाराती भी रफूचक्कर हो लिये। पकड़ में आये तो केवल दूल्हा और दुल्हन। दुल्हन तो बेचारी पराई अमानत होने के कारण फिर भी बच गई पर मैं पूरी तरह से लपेटे में आ गया था। उस दिन मेरी जमकर पिटाई हुई। वह शानदार पिटाई और दूल्हे की ताजपोशी का दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरकर मुझे उस दिन भी भयभीत किये जा रहा था जब मैं जवान होकर अपनी असली शादी के समय दूल्हन की मांग में सिंदूर भरने को एकदम तैयार खड़ा था।

(शेष अगली किस्त में)  14 जनवरी,2015