रविवार, 22 मार्च 2015

तेरहवीं किस्तः नेपाल के वो दोस्त..

चपन के उसी दौर में बहराइच से शुरू होकर मेरे गायन की चर्चा अब आसपास के शहरों में भी होने लगी थी। बहराइच से कुछ ही दूरी पर नेपाल का शहर नेपालगंज पड़ता था। उ. प्र. के नज़दीक होने के कारण वहां पर हिंदी बोलने वालों का बाहुल्य था। जनमाष्टमी और होली जैसे त्यौहारों पर वहां भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भव्य आयोजन होता रहता था। वहां के कार्यक्रमों में जाते रहने से बचपन में ही मेरे कई सारे नेपाली मित्र बन गये थे। उनमें से कुछ बेहतरीन गायक भी थे। मेरे एक वरिष्ठ मित्र को तो किशोर कुमार के गानों में महारथ हासिल थी। उस समय की फिल्मों के किशोर के हिट गाने उनके मुंह से सुनकर श्रोतागण झूम जाते थे। पर उनकी और वहां के लोगों की नज़र में मैं भी कुछ कम नहीं था। 

एक बार जनमाष्टमी के दिन वहां काफी सुंदर कार्यक्रम का आयोजन हुआ। बालक किशोर (मेरे) द्वारा लता जी की आवाज़ में गाये गये गीतों की भी खूब प्रशंसा हुई। मेरे नेपाली दोस्तों से मुझे भरपूर दाद मिली। कार्यक्रम के बाद भोजन व प्रसाद की भी सुंदर व्यवस्था थी, सो कई घंटों का भूखा होने के कारण मैंने छक कर खूब सारा खा लिया। इससे मेरा हाज़मा कुछ बिगड़ गया। अचानक पंडाल के बाहर ज़ोरदार बारिश भी शुरू हो गई थी। उस समय तक वहां आयोजकों के अलावा मेरे गिने-चुने मित्र ही शेष रह गये थे। जब कुछ ही देर में मेरे पेट ने गुड़-गुड़ करना शुरू किया तो मुझसे रहा नहीं गया। बेशक मैं उस समय बहुत छोटा था पर मेरी तब भी कुछ इज़्ज़त तो थी ही। शर्मवश मैंने किसी और से तो कुछ भी नहीं कहा पर चुपचाप जाकर मैंने अपने एक नेपाली दोस्त के कानों में अपनी बात ज़रूर डाल दी। मेरी स्थिति का अंदाज़ लगते ही मेरा वह दोस्त दौड़कर कहीं से एक छाता ले आया। बाहर घोर अंधेरे के बीच दो-तीन दोस्त मिलकर हमें पास के ही एक पोखरे तक ले गये। वहां एक दोस्त छाता खोलकर मुंह घुमाकर खड़ा हो गया और बाकी डंडे लेकर मेरी निगरानी में लगे रहे। क्योंकि वहां जंगली जानवरों का भी कुछ खतरा था। इस प्रकार से बेफ़िक्ऱ होकर पूरी निडरता के साथ मैं अपने ज़रूरी काम को अंजाम दे पाया। 


मेरे काफ़ी ख़ोजने के बावजू़द उस समय के उन नेपाली दोस्तों का तो अब-तक कोई अता-पता नहीं चला पर आज जीवन के इस मोड़ पर नये बने नेपाली दोस्तों में ही मैं बचपन के अपने उन दोस्तों की छवि पाकर तसल्ली कर लेता हूं।

22 मार्च,15 (शेष अगली किस्त में)  

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

बारहवीं किस्तः होली जो भुलाये न भूले...


हराइच की बचपन की वो मदमस्त होली भला हम कैसे भूल सकते हैं, जिसमें रंग और अबीर-गुलाल में सभी एक रंग हो जाते थे। तब न कोई हिंदू होता था न मुस्लिम और न सिक्ख या ईसाई। सभी बस हमारे दोस्त और अड़ोसी-पडा़ेसी ही होते थे। बहराइच के घंटाघर के चौराहे की होली आज भी याद आती है तो मन उड़कर वहीं पहुंच जाने को आतुर हो जाता है। परंपरा अनुसार बहराइच में होली का रंग तो बसंत पंचमी से ही हवा में उड़ने लगता था परन्तु होलिका दहन के एक दिन पहले जमकर होली खेली जाती। होली के दिन आधे दिन तक खूब ज़ोरों की होली होती और फिर बारह-एक बजे तक सभी अपना रंग छुड़ाने बैठ जाते। नहा-धोकर हम नये कपड़े पहनते। कपड़े ही क्या होली के दिन तो हमारी पैंट-शर्ट ही नहीं चड्डी, बनियाइन और जूते-मोेजे तक नये होते। शहर में विशेषकर, चौक बाज़ार और घंटाघर के किनारे-किनारे खूबसूरत बाज़ार सजते और तरह-तरह के रंग-बिरंगे खिलौने आदि बाज़ारों में दिखाई पड़ते। उस दिन हम बढियां-बढियां कपड़े पहन कर शहर के अपने यार-दोस्तों और सगे सम्बन्धियों से मिलते-जुलते थे और आपस में गुजिया आदि बांटकर खाते और मौज़ करते थे..

होली के दिन घंटाघर के मैदान में हज़ारों लोगों के बीच हर बार सांस्कृतिक कार्यक्रम का भव्य आयोजन ज़रूर होता। और उसमें मेरे गानों पर हज़ारों लोग झूमते और थिरकते। उस दिन ‘आज बालक किशोरवा का प्रोगराम है’ कहते हुए ज़्यादातर दूकानदार अपनी दूकानें जल्दी बंद कर देते थे। प्रायः इस अवसर पर लखनऊ से आर्केष्ट्रा भी बुलाया जाता। उनमें कभी-कभी आज के प्रसिद्ध ग़ज़ल व भजन गायक श्री अनूप जलोटा भी अपनी मद-मस्त आवाज़ का जादू बिखेरने आते थे। तब वह देखने में राजेश खन्ना या जितेन्द्र जैसे किसी अभिनेता से कम नहीं लगते थे और उनके मुंह से जब किशोर कुमार के हिट गाने फूटते तो बस मज़ा ही आ जाता। पर मेरे लता जी की आवाज़ में गाये जाने वाले गानों की भी कोई कम पूछ नहीं होती थी। यह बहराइच वालों का मुझ बालक पर अत्यधिक प्रेम और स्नेह ही था कि उन बाहरी गायकों के मुझ से किसी भी तरह से कमतर न होने के बावजूद मेरे गानों की ज़्यादा फरमाइश होती और मेरे एक-एक गाने पर प्रशंसक और नगर के सेठ आदि ईनामों की बौछार कर देते। प्रायः हर गाने के बाद किसने मेरे गाने पर क्या ईनाम दिया इसकी पूरी लिस्ट पढ़ी जाती। जबकि बाहरी कलाकारों को बेहतर होने के बावज़ूद निराश होना पड़ता। 

एक बार तो लखनऊ का बहुत बढ़ियां आकेष्ट्रा आने के बावजूद लोग बार-बार मेरे गानों की ही फरमाइश करते रहे और हर गाने पर ईनामों की बौछार करते रहे। इससे मामला कुछ बिगड़ गया। लखनऊ के कलाकार अत्यधिक बिगड़ गये और उन्होंने यह कहते हुए अपना आर्केष्ट्रा मंच से हटा लिया कि यदि आप लोगों को इसी बच्चे को सुनना है और इसी को ईनाम देना है तो हमें बुलाने की क्या ज़रूरत।’ बाद में बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाकर फिर से मंच पर बैठाया गया। 

वो हज़ारों लोगों और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मेरा गाना गाना यद्यपि आज बहुत पीछे छूट गया है परन्तु कानों में समायी वह गूंज आज भी बाहर आने को तैयार नहीं।
(फोटोग्राफ्स बहराइच के दोस्त श्री सुरेश अग्रवाल के सौजन्य से..)

06 मार्च,15 (शेष अगली किस्त में)