शनिवार, 13 दिसंबर 2014

नौवीं किस्त: जब भीख में मिले पैसों से आया बैंजोे...

स समय बहराइच के गवर्नमेंट इंटर काॅलेज में पढ़ाई से कई गुना अधिक हमारे गानों की धूम रहती थी। कोई भी फंक्शन हो, छोटा या बड़ा हमें गाने के लिये प्रमुखता से याद किया जाता था। तब कई सहपाठी हमारी गायिकी और प्रसिद्धि की वजह से ही हमसे दोस्ती करने को लालायित रहते थे। पर हम इस बात से अनजान सभी से मित्रता निभाने को खुद भी आतुर रहते थे। 

एक दिन काॅलेज में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता का आयोजन हुआ तो संगीत के मास्टर जी ने हमें भिखारी का रोल दिया। तब मैं भी इस चैलेंज को स्वीकारते हुए अपने भाई के साथ भिखारी की ड्रेस में मंच पर कूद पड़ा। भाई के हाथ में एक कटोरा था और मेरे गले में छोटी सी हारमोनियम टंगी हुई थी। परदा खुलते ही जब मैंने एक फूल दो माली फिल्म के गीत की लाइनें ‘कर दे मदद ग़रीब की तेरा सुखी रहे संसार बच्चों की किलकारी से गूंजे सारा घर-बार...औलाद वालों फूलो-फलो... अपनी मधुर आवाज़ (जैसा कि लोग बताते हैं) में शुरू की तो हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से न केवल गूंज उठा बल्कि कई श्रोतागण तो मंच पर आकर हमारी कटोरी में सिक्के व नोट ही डालने लग गयेे। और फिर क्या था देखते ही देखते हमारी कटोरी सिक्कों और रुपयों से भर कर छलकने लगी और स्टेज पर भी चारों ओर सिक्के ही सिक्के नज़र आने लगे। उस दिन हमारी काफी अच्छी कमाई हो गई थी। और बड़ी बात ये भी थी कि भिखारी की वेशभूषा में भी सबने हमें पहचान लिया था। 

अगले दिन संगीत के शौकीन हमारे प्रिंसिपल श्री वसीमुल हसन रिज़वी साहब ने हमें अपने कमरे में बुलाकर जहां सुंदर गीत व अभिनय पर हमें खूब शाबाशी दी वहीं संगीत के मास्टर जी को यह निर्देश भी दिया कि वे आइंदा बच्चों से ऐसे रोल न करायें क्योंकि हो सकता है कि कभी ये बच्चे देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या कुछ और ही बन जायें। उन्होंने मास्टर जी को यह भी सलाह दी कि बच्चों को ईनाम (भीख) के पैसे नकद न देकर उन्हें वाद्ययन्त्र खरीदकर दिया जाये ताकि उनका संगीत का शौक भी पूरा होता रहे। 

और तब उन पैसों से हमारे लिये एक सुंदर सा बैंजो बाज़ार से खरीदकर दिया गया, जिसे हम सालों बजाते रहे थे। वह हमारा पहला बड़ा ईनाम था।

(शेष अगली किस्त में)  
13 दिसम्बर,14

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014


आठवीं किस्त

....और गाना गाने सेे पिटाई भी हुई...


हराइच के जीआईसी में पढ़ते हुए यद्यपि मुझे सभी अध्यापकों का ज़्यादातर प्यार ही मिला और अमूमन मैं ग़ल्तियों और पढ़ाई के प्रति ज़्यादा गंभीर न होने के बावजूद अध्यापकों की डांट व मार खाने से बच जाता था परन्तु हर बार ऐसा ही होता हो, ऐसा भी नहीं था। मेरा जो सुमधुर गायन पिटाई से प्रायः मेरी रक्षा करता था उसने एक बार मुझे अपने अध्यापक जी की खूब मार भी खिलाई। इस प्रकार से अध्यापकों के स्नेह व प्यार के बीच मुझे डांट-मार खाने का सुख भी भोगना पड़ा।

एक दिन की बात है, कक्षा में मास्टर जी को पधारने में कुछ देरी हो गई थी। उनकी देरी का फ़ायदा उठाने के लिये क्लास के सभी बच्चे मनोरंजन के मूड में आ गये थे। शोरगुल के बीच मेरे एक सहपाठी ने सबको शांत करते हुए एनाउंस कर दिया कि आज किशोर श्रीवास्तव शहर के ओंकार टाकीज़ में लगी फिल्म का कोई गीत सबको सुनायेंगे। उसके इतना एनाउंस करते ही कक्षा में और भी ज़्यादा शोर मच गया। सभी मुझ पर गीत गाने का दबाव बनाने लगे। अंततः मुझे उसी फिल्म का एक गीत गाने पर मज़बूर होना पड़ा। गीत की अंतिम लाइन तक पहुंचते-पहुँचते सभी बच्चे ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाते हुए मेरी सीट के इर्द-गिर्द आकर इकट्ठे होने लगे थे। शोर की आवाज़ क्लास से बाहर तक चली गई थी। उसी समय हमारी क्लास के पास से अंग्रेजी के अध्यापक श्री शत्रुध्नलाल जी गुज़रे तो उनकी कानों से भी बच्चों की तेज़ आवाज़े जा टकराईं। शोरगुल सुनकर वे छड़ी लिये हमारे रूम में घुस आये। उन्होंने बच्चों को शांत कराते हुए जब उनसे इस भयानक शोर का कारण पूछा तो किसी ने बताया कि क्लास में गाने का कार्यक्रम चल रहा था। इस पर जब उन्होंने डपटकर पूछा कि पढ़ाई करने के समय गाना कौन गा रहा था, तब उसी निगोड़े सहपाठी ने सत्य हरिश्चंद्र बनते हुए सीधा मेरी ओर इशारा कर दिया था, जिसने मुझे उस दिन गाना गाने के लिये सर्वप्रथम बाध्य किया था। और फिर क्या था मास्साब मुझ पर अपनी छन्टी के साथ बरस पड़े थे- ‘क्यों रे पढ़ाई करने की बजाय सभी को गाना सुना रहा था....आ आज तेरा सारा गीत मैं निकालता हूं।’ इस प्रकार उस दिन गाना गाने के कारण क्लास में सभी बच्चों के सामने मेरी जमकर ताजपोशी हुई। और कमाल की बात यह भी रही कि पहले तो क्लास के बच्चों ने जि़द करके मुझसे गीत सुना और फिर बाद में मेरी ताजपोशी का खूब लुत्फ़ भी उठाया।

(शेष अगली किस्त में) 
21 नवम्बर,14

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

सातवीं किस्तः

गायिकी से बचाव

पांचवीं करने के बाद मुन्ना भैया का एडमीशन बहराईच के गवर्नमेंट इंटर कालेज में हो गया था। उस समय (अब का पता नहीं) गवर्नमेंट इंटर कॉलेज पढ़ाई-लिखाई ही नहीं प्रायः हर मामले में सबसे अव्वल हुआ करता था। उसमें प्रवेश की प्रकिया भी उस वक्त के हिसाब से काफी जटिल थी। तब वहां बिना अच्छे नंबर लाये छठी क्लास में एडमीशन मिलना मुश्किल होता था। परन्तु मुन्ना भैया की गिनती उस समय पढ़ाकू छात्रों में होती थी अतः उन्हें उसमें प्रवेश मिलने में कोई खास जददो-ज़हद नहीं करनी पड़ी थी। अगले साल ही घसीट-घसाट के मैं भी राजकीय इंटर कॉलेज में पहुंच गया था। मैं पढ़ाई में मुन्ना भैया की तरह बहुत तेज़ नहीं था पर रट्टू तोता होने के कारण प्रवेश परीक्षा निकाल ले गया था। तब की पढ़ाई आज की तरह इतनी दुरूह भी नहीं थी। छठी कक्षा में हमें एक बार फिर से ए बी सी डी व क ख ग घ की रट लगानी पड़ी। जीआईसी में पहले साल से ही सुमधुर गायन के कारण मेरी व मुन्ना भैया की तूती बोलने लगी थी। यद्यपि मुन्ना भैया की आवाज़ मुझसे कहीं अधिक अच्छी थी परन्तु मुझे अपनी पतली और मीठी आवाज़ का ज्यादा फायदा मिला और कॉलेज में मेरी गिनती अव्वल दर्जे के गवैये के रूप में होने लगी थी। बताते हैं कि उस समय पतली व मधुर आवाज़ होने के कारण लोग मुझे जुनियर लता के नाम से जानने लगे थे। छठी में एक विषय के रूप में हमने संगीत विषय भी लिया था। श्रीवास्तव मास्साब हमें संगीत सिखाते थे। कॉलेज में जब भी कोई संगीत या नाटक का कार्यक्रम होता हमें क्लास से बुलवा लिया जाता। स्कूलों की जनपदीय युवक समारोह और संगीत की प्रतियोगिताएं के अवसर पर तो प्रायः हम कई-कई दिनों तक कक्षा से गायब रहकर गाने-बजाने के रिहर्सल में ही लगे रहते थे। ऐसे में पढ़ाई से कुछ दिनों के लिये छुटकारा पाकर मुझे खासकर काफी राहत मिलती थी। मुझे गाने में अव्वल रहने का एक फायदा और मिलता था मेरे अध्यापकगणों की मुझ पर विशेष कृपा रहती थी। मैं अपना होमवर्क करके न लाऊं या किसी सवाल का सही जवाब न दे पाऊं तो इन्हीं बातों पर पूरी क्लास पिट जाती थी पर मैं बचा रह जाता था। बच्चों की गलतियों पर पिटाई करते समय हिंदी के श्रीवास्तव मास्साब और गणित के जायसवाल मास्साब (शायद यही नाम था) प्रायः मेरे विपरीत के कोने से बच्चों की पिटाई करना शुरू करते। अक्सर मेरा नंबर आने तक या तो अगले क्लास के लिय घंटा बज जाता या मेरी मासूम शक्ल पर अध्यापकद्वय को तरस आ जाता अथवा यूं कहिये कि मेरी गायिकी का प्रभाव। मेरे द्वारा समर्पण की मुद्रा और दयनीय सूरत बनाते हुए हाथ आगे किये जाने पर भी उनकी छड़ी बीच राह में ही रुक जाती थी। और मैं प्रायः हर बार पिटने से बचा रह जाता था।           

23 अक्तूबर,14
(शेष अगली किस्त में)  

रविवार, 7 सितंबर 2014

छठी किस्तः उपहास का पात्र

....स्कूल की पढ़ाई के अलावा एक मास्टर जी हमें घर पर भी पढ़ाने आते थे। वह मुस्लिम थे परन्तु तब हमें वहां इन सब बातों से कोई फर्क़ नहीं पड़ता था कि कौन किस जाति व धर्म का है। हमारे लिये सभी लोग लगभग बराबर ही थे। क्योंकि साथ-साथ खेलने-कूदने व पढ़ने, लिखने के दौरान हमें इन सब बातों की ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत ही नहीं रहती थी। पर मैं साफ़तौर पर यह नहीं कह सकता हां, इतना ज़रूर याद पड़ता है कि घर में सभी तरह के लोगों का आना-जाना निरन्तर बना रहता था। और कहीं कोई किसी तरह की खा़स पाबंदी भी नहीं थी।

घर के मास्टर जी एक साथ आस-पड़ोस के कई बच्चों को पढ़ाते थे। घर के बाहर हाते के भीतर ही सभी बच्चे एकत्र हो जाते और मास्टर जी अलग-अलग क्लास के बच्चों को एक साथ पढ़ाना शुरू कर देते। कुर्सी बस मास्टरजी के लिये होती थी। बच्चे दरी या चटाई पर ही बैठते थे। मास्टर जी पढ़ाई के साथ-साथ सभी बच्चों को अक्सर अच्छी-अच्छी कहानियां भी सुनाते थे। और वक़्त-ज़रूरत, उनकी छड़ी भी हमारी पीठ या हथेली को लाल कर जाती थी। तब आज की तरह माता-पिता को मास्टरजी द्वारा हमें पीटे जाने पर कोई आपत्ति नहीं होती थी। अलबत्ता कभी-कभी हमारे द्वारा होमवर्क पूरा न किये जाने या किसी गंभीर शैतानी पर उनकी ओर से घुमा कर दो-चार और जड़ने की फ़रमाइश भी आ जाती। तब की एक बात और भी उल्लेखनीय थी कि मास्टर जी भी बगै़र भेदभाव के हमारी पढ़ाई व पिटाई पर एक समान ध्यान देते थे। ऐसे में हमारी जान-पहचान या उनके लिये चाय-पानी का इंतज़ाम करना भी कभी इन सबके आड़े नहीं आता था। 

एक रोज़ जब उन्होंने एक बच्चे को पढ़ाई के दौरान ज़्यादा शरारत करने व अकड़ दिखाने पर डांटा-फटकारा व अंत में पीट भी डाला तब बच्चे के माता-पिता ने भी बजाय बच्चे को बचाने के स्वयं भी उसे दो-चार थप्पड़ रसीद कर दिये। और जब दिन-प्रतिदिन उसकी शरारत बढ़ती गई तो एक दिन उसे हाते में लगे अमरूद के पेड़ पर रस्सियों से उल्टा लटकने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। हालांकि बाद में इस मारा-मारी के दौरान उसके कानों से खून बहने पर मास्टर जी को बहुत अफ़सोस हुआ और उन्होंने प्राथमिक उपचार के साथ उसे प्यार से पुचकारा-दुलारा भी था। 

अक्सर मास्टर जी जब बच्चों को पढ़ाने बैठते तब उनसे उनका हाल-समाचार आदि भी पूछ बैठते। एक दिन उन्होंने जब सभी बच्चों से बारी-बारी से यह पूछा कि उन्होंने आज क्या खाया है तो सभी ने बढ़चढ़कर अपने खाने-पीने का बखान कर डाला। किसी ने मलाई-कोफ़्ते, किसी ने पूड़ी-पुलाव और किसी ने छोले-पराठे या मटन-बिरयानी खाने की बात कही। जब मेरा नंबर आया तब मैं संकोच में पड़ गया। अंत में जब मैंने झिझकते-झिझकते बताया कि आज मैंने खिंचड़ी खाई है, तो सभी ठहाका लगाकर हंस पड़े। उस समय सच् का बखान करने पर मुझे सबके उपहास का पात्र बनना पड़ा था। बेशक मास्टर जी ने सबको डांटकर चुप करा दिया था पर मैं क़ाफ़ी देर तक यह सोचता रह गया था कि मुझे सच ही बोलना चाहिये था या सबकी तरह से अपनी बात को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करना चाहिये था।

07.09.2014 

(शेष अगली क़िस्त में...)


रविवार, 31 अगस्त 2014

पांचवी किस्तः नमकीन और हलुवा

चपन में हम जिन दांव-पेचों, नफा-नुकसान व चालाकियों आदि से मसरूफ होते हैं वो हमें समय के साथ-साथ अपने आस पास के परिवेश से स्वतः ही मिलती चली जाती हैं। बहराइच के उस सरकारी प्राइमरी स्कूल में धीरे-धीरे हमारा मन रमने लगा था। बेशक ये सदियों पुरानी बात न हो पर उन दिनों बहराइच जैसे छोटे से शहर में आज जैसे अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल नहीं थे। शिशु मंदिर व मांटेंसरी स्कूलों की गिनती ही खासे स्कूलों में होती थी। पर घर के नज़दीक होने व किन्हीं अन्य कारणों के चलते हम सरकारी स्कूल में ही रच-बस गये थे हमारा मन वहीं रमने लगा था। तब आज की तरह शायद ऐसी होड़ भी नहीं थी कि बच्चों को किसी महंगे प्राइवेट स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाये। उस दिन स्कूल के बच्चे बहुत खुश थे। शायद कोई फंक्शन था। हमें कोई अच्छा सा देशभक्तिपूर्ण गीत गाने को बोला गया था। सो हमने उसकी अच्छी खासी तैयारी भी कर ली थी। एक दिन पहले ही हमें बताया गया था कि अगले दिन सभी बच्चों को खाने के लिये स्कूल में नमकीन और हलुवा मिलेगा। सभी बच्चे इस बात को लेकर बहुत खुश थे। अगले दिन कुछ बच्चे तो घर से बिना कुछ खाये-पिये ही चले आये थे। स्कूल में नमकीन और हलुवा जो बंटना था। मेरा ध्यान भी गाना गाने से ज़्यादा नमकीन और हलुवे की ओर था। 

उस दिन एक मास्टर जी ने हमारे घर से एक-दो किलो के करीब नमक भी मंगवाया था। सो हमने बिना किसी हील-हुज्जत के उन्हें नमक की पोटली लाकर दे दी थी। उन दिनों नमक पैकेट में नहीं बल्कि नमक की डलियों के रूप में खुले में मिलता था। फंक्शन वाले दिन स्कूल में कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। जो बच्चे अक्सर कक्षा से गायब रहते थे वह भी उस दिन स्कूल आये हुए थे। मेरे भैया मुन्नाजी, मैं खुद और कुछ अन्य सुरीले बच्चे गाना गाने को एकदम तैयार बैठे थे। कार्यक्रम में सभी गायकों की सहपाठियों व शिक्षकों द्वारा खूब तारीफ की गई। पर उस दिन हेड मास्टर साहब के न होने की हमें काफी कमी खली थी। कार्यक्रम में वह होते तो हमें और भी अच्छा लगता क्योंकि उन्हें हमारी कला से बहुत प्यार था।

कार्यक्रम के समापन की घोषणा के साथ ही सभी बच्चों को लाइन में लग कर नाश्ता लेने को कह दिया गया था। सभी बच्चे धक्का-मुक्की और शोरगुल करते हुए लाइन में लग गये थे। और अंततः वह घड़ी आ ही गई जिसका हम सभी बच्चों को पिछले दिनों से काफी इंतज़ार था। सभी के हाथों में बारी-बारी से हलुवे की पत्तलें थमाई जाने लगी थीं। हालॉकि कहे अनुसार नमकीन का पत्तल कहीं भी नहीं दिख रहा था। जिन बच्चों को पत्तलें पकड़ा दी गई थीं उनमें से ज़्यादातर बच्चे तेजी से अपनी-अपनी पत्तलें लिये अपने-अपने घरों की ओर भाग गये थे। कुछ बच्चे हलुवे की पत्तलें पाकर खुश नहीं दिखाई पड़ रहे थे और ज़रा सा चख कर ही उन्होंने अपनी पत्तलें इधर-उधर फेंकना शुरू कर दिया था। जब हमारा नंबर आया तो हलुवा चखते ही हमारा मन भी खराब हो गया था। हलुवे में चीनी की बजाय नमक पड़ा हुआ था। और वह बेस्वाद लग रहा था। जब हमने दबी ज़ुबान से इसके बारे में पड़ताल की तो मालूम पड़ा कि हम बच्चों तक शायद ग़लत सूचना पहुंची थी। किसी ने बताया कि नाश्ते में नमकीन और हलुवे की बजाय नमकीन यानी नमक मिला हलुवा बंटने की बात कही गई थी। 

उस समय सूजी से आज की तरह उपमा जैसी डिश बनाने का प्रचलन भी नहीं था। फिर उतने सस्ते ज़माने में भी बच्चों के साथ ऐसा क्यों किया गया। वह किसी भ्रष्टाचार का अंग था या बच्चों के साथ कोई मज़ाक...? बच्चों के नन्हें दिमाग में इन बातों का अर्थ आ पाना मुश्किल था, उन दिनों।

31.08.2014                                                                                                         

शेष अगली किस्त में....

शनिवार, 2 अगस्त 2014

4थी किस्तः वो अलग किस्म के लोग


हराइच में हमारे अनेक मुस्लिम दोस्त थे। कुछ अनुसूचित जाति के भी थे। पर तब हमें इन छोटी, बड़ी जातियों के अंतर का कुछ पता नहीं होता था और न हम यह जानते थे कि हिंदूमुस्लिम दो अलग अलग कौमें हैं। शायद इसलिये भी कि हम अभी बहुत बच्चे थे और हमें इस तरह की अलगाव की बातें सीखने का अभी मौका नहीं मिला था। एक साथ खेलना] कूदना, पढ़ना.लिखना और स्कूल जाना। हम होली, दिवाली और ईद जैसे त्यौहारों पर एक साथ खुशियां मनाते थे और मन भर कर गुझिया, सेंवइयां खाते थे। पर हां एक बात उन दिनों जरूर देखने को मिलती थी, जब हमारे या किसी बड़े अधिकारी या स्वर्ण जाति वाले के यहां कोई खाने,पीने की पार्टी होती थी तो मेरे अनुसूचित जाति के दोस्तों के घर के लोग अपनी थाली, प्लेट व गिलास घर से ही लेकर आते थे। वो ऐसा क्यों करते थे और या उन्हें यह सब करने को कौन कहता था, तब हमें इसका पता नहीं होता था। शायद बचपन में ही उनके अंदर ये संस्कार भर दिये जाते थे कि वो हमसे कुछ अलग हट कर हैं। 

उन दिनों घरों में फ्लश लेट्रीन भी नहीं होती थी। सुबह-सुबह लेट्रीन साफ करने वाली एक काली व मोटी सी औरत सबके घरों में आती थी। वह एक बड़ी सी डलिया में मल भरकर सिर पर लाद कर ले जाती थी। उसे देखकर लगता था कि शायद वह कोई अलग किस्म की प्राणी है और उसे इसी काम के लिये भगवान जी ने इस धरती पर भेजा है। बेशक उसके हाथ, पैर, नाक और मुंह आदि सभी कुछ आम इंसानों जैसे ही थे। परन्तु हमें उससे दूर-दूर रहने की हिदायत थी। कहीं उससे हमारा शरीर छू गया तो हमें फिर से नहाना पड़ेगा, इस डर से हम उसके पास भी नहीं फटकते थे। उसे रात का बचा खुचा कुछ बासी खाना भी देना होता था तो हम वह सब दूर से ही उसके सामने रखकर भाग खड़े होते थे। उस समय मनुष्य का मल उठाने जैसे घृणित कार्य का मेहताना भी बहुत कम होता था। कहीं-कहीं तो सुनते थे कि इसके लिये उन्हें बस बासी खाना ही नसीब होता था। 

शहर से दूर उनके लिये सरकार ने एक कालोनी भी बसा रखी थी। वहां सभी लोग इसी जाति के और इसी काम में संलग्न रहने वाले थे। वे सभी चेहरे-मोहरे से भी प्रायः आम लोगों से अलग व एक जैसे दिखलाई  पड़ने वाले लोग थे। वह कालोनी आम कालोनियों से अलग थी और जब हम कभी उधर से गुजरते थे तो हमें लगता था कि वह किसी अनोखे गृह के प्राणी हैं और उन्हें इसी तरह से लंबी झाड़ू, डलिया और मल उठाने वाले उपकरणों के साथ एक अलग दुनिया में रहना है। यह बात हमारी समझ से बाहर थी कि जिनके साथ हम घर से बाहर या स्कूल में समान भाव से खेलते-कूदते थे वह घर के दरवाजे पर आते ही अछूत क्यों हो जाते थे। मां-पिता जी की कहानियों में अक्सर यही जिक्र होता था कि संसार के सभी प्राणियों को भगवान जी ने अपने हाथों से एक समान रूप से बनाया है। मेरे आज के कई अनुसूचित जातियों वाले प्रिय मित्र जब यह बताते हैं कि उनके गांव में अभी भी ऐसी कुछ परम्परायें जीवित हैं तो मुझे आश्चर्य होता है और अपना बचपन याद आ जाता है। मैं तब यह भी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि आजादी के इन छः दशकों में बड़े-बड़े बदलावों का दावा करने वाले हम लोग इस मामले में अभी भी क्यों पीछे के पीछे ही रह गये हैं, चाहे थोड़ा-बहुत ही सही।


(शेष अगली किस्त में)

शनिवार, 26 जुलाई 2014

तीसरी किस्तः विवशता

ग़रीबी, बेरोज़गारी और महंगाई का रिश्ता मनुष्य के साथ शायद प्रारम्भ से ही रहा है। हम आज इन सबके लिये हाय-हाय बेशक करते हों पर छोटे-बड़े किसी न किसी रूप में यह हर युग में मौजू़द था। फर्क़ बस इतना ही है कि आज बहुत से लोग जो चीजें सौ-पचास में खरीदने के लिये दस बार सोचते हैं, तब के लोगों के लिये उन चीज़ों को चवन्नी, अठन्नी में भी खरीद पाना मुश्किल रहता था। हम लोग कोई बहुत रईस नहीं तो बहुत दीन-हीन भी नहीं थे। पिता जी की सीमित तनख़्वाह में भी हम उस शहर में शान से रह रहे थे। 

नगर पालिका व बहराईच शहर में अपने कार्य व व्यवहार से उन्होंने अच्छा रुतबा भी जमा लिया था। नगर में कोई सर्कस, मेला या काला जादू आदि का शो होता तो हमें उके पास सरलता से मिल जाते। पासों की संख्या भी इतनी होतीे कि उनसे हमारे मित्र आदि के घर वाले भी लाभ उठा लेते थे। घर के बगल में स्थित ओंकार सिनेमा हाल के रियायती पास तो किसी फिल्म का पहला, दूसरा दिन होने पर भी अपने आप घर आ जाता था। इसका कारण शायद यह भी था कि उस समय इस तरह के सभी कार्यों का कुछ न कुछ वास्ता नगर पालिका से ज़रूर पड़ता था। पाठशाला में भी हमें एकाउंटेंट साहब का शहज़ादा होने के कारण विशेष स्थान प्राप्त था। कभी स्कूल आने में देरी हो जाये, हमारा होम वर्क पूरा न हो या हम किसी सवाल का जवाब न दे पायें तो पिता जी के नाम के चलते हमें अध्यापकगण प्रायः कम ही टोकते-टाकते थे। और इसी के चलते कभी हमें और छात्रों के मुकाबले परीक्षा में दो-चार नंबर ज़्यादा भी मिल जाते थे। इसका कारण पिता जी की साख, कार्य-व्यवहार के अलावा एक दिलचस्प पहलू शायद यह भी रहा था कि अध्यापकों की तन्ख़्वाह तब नगर पालिका से ही बनकर आती थी। हालांकि इन बातों से अनभिज्ञ तब हमें यह नहीं पता होता था कि हमारे साथ यह विशेष रियायत हमारे हित में है या अहित में। हम तो इसी में खुश रहते थे कि हमें स्कूल में विशेष तवज्जो प्राप्त है और हमें एक अलग नज़रिये से देखा जाता है।

बात बहुत पुरानी होने के कारण हमें अपनी पाठशाला के सभी अध्यापकों की तो आज याद नहीं रही परन्तु हमारे हेड मास्टर जी की स्मृति आज भी हमारे जेहन में मौजू़द है। खद्दर की धोती, कुर्ते और गांधी टोपी में वह सादगी की मूरत लगते थे। उनका रहन-सहन व पढ़ाने का अंदाज़ कुछ-कुछ उस समय की फिल्मों में दिखाई देने वाले आदर्श अध्यापकों जैसा ही होता था। नियम से साफ-सुथरे कपड़ों में माथे पर लंबा सा टीका लगाये जब वह पाठशाला में घुसते थे तो उनकी आभा और व्यक्तित्व के सामने हमारा सिर स्वतः ही श्रृद्धा से झुक जाता था। उनका बेटा, जो शायद किसी बड़ी कक्षा का विद्यार्थी था, अक्सर अपने स्कूल की छुट्टी होने पर हमारी पाठशाला में आ जाता था। पिता-पुत्र दोनों पाठशाला में प्रायः एक साथ ही लंच करते थे। उनका लंच याद कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आंखें नम हो ती हैं। पाठशाला के अहाते में एक बड़ा सा अमरूद का पेड़ लगा था। हम अनके विद्यार्थी अक्सर उसके अमरूद तोड़-तोड़कर खाया करते थे। इसके लिये किसी को कोई मनाही या कम ज़्यादा खा लेने की पाबंदी नहीं थी। 

हमने अपने हेडमास्टर जी व उनके बेटे को तब अनेक बार उसी पेंड़ के कच्चे-पक्के अमरूद व नमक के साथ रोटी हलक से नीचे उतारते देखा था।

दिनांकः 26.07.2014

शेष अगली किस्त में...

रविवार, 13 जुलाई 2014

द्वितीय किस्तः आँखें फोड़ दें उसकी...


ये शहर और नये लोगों के बीच सब कुछ अनोखा सा था। शुरू-शुरू में जल बोर्ड के एक बड़े से अहाते में एक अदद छोटा सा अस्थाई सरकारी मकान पाने के बाद शीघ्र ही हमें एक बड़ा सा सरकारी मकान मिल गया था और हम उसमें शिफ्ट हो गये थे। पोस्ट ऑफिस के सामने और बड़ी सी जयहिंद कोठी के बगल में स्थित इस मकान के एक ओर भव्य ओंकार सिनेमा हाल था। और लगभग 2-3 फर्लांग की दूरी पर ही बड़े से पार्क के बीच अंग्रेजों के ज़माने का बना आकर्षक व काफी ऊंचा घंटाघर। वहीं चौक बाज़ार था जो बहराइच का मुख्य बाज़ार था। शहर छोटा सा था परन्तु उस समय के हिसाब से ठीक-ठाक था। हमें शहर का मिजाज़ समझने में कुछ समय ज़रूर लगा पर धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों मैं होश संभालता गया बहराइच शहर मेरी रगों में बसता चला गया। 


हम सभी को साहित्य व संगीत का शौक विरासत में मिला था। मेरे मम्मी-पापा की रूचि प्रारम्भ से ही संगीत, सिनेमा में थी। विशेषकर मेरे मझले भैया अरुण श्रीवास्तव ‘मुन्नाजी’ तो बहुत अच्छा गाते थे और उनमें बचपन से ही साहित्य की भी काफी समझ थी। यही वजह थी कि जब भी कोई मेहमान घर पर आता हमसे गाना गाने की फरमाइश ज़रूर की जाती। तुतली आवाज़ में ही सही हमें तबके अनेक फिल्मी गाने रटे रहते थे और किसी के सामने गाने में हमें ज़्यादा झिझक भी नहीं होती थी। उम्र के साथ-साथ हमारी आवाज़ भी साफ होती चली गई थी। हम उस समय नगर पालिका द्वारा संचालित जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे वहां भी हमारे गीत-संगीत का जादू चल गया था। स्कूल की प्रार्थना और जनगणमन गायन तक में हमें शामिल किये बिना बात नहीं बनती थी। उसी स्कूल में पढ़ते हुए सबसे पहले एक बार हमने छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में देशभक्ति का एक नाटक खेला था। कई स्कूलों के बच्चों को घंटाघर के प्रांगण में प्रदर्शन के लिये बुलाया गया था। सभी स्कूल अपने-अपने बच्चों की सांस्कृतिक टोली लेकर आये थे। हमने भी खूब तैयारी कर रखी थी। कार्यक्रम के समय मंच के एक ओर कुर्सियों पर बेसिक शिक्षा परिषद के वरिष्ठ अधिकारी विराजमान थे और बाकी हिस्से में सभी को अपना-अपना प्रदर्शन करना था। सामने सैकड़ों की तादाद में नगर की जनता थी। 


हमारे नाटक में एक पंक्तियां मुन्ना भैया को बोलनी थी। उसमें दुश्मन को ललकारते हुए उन्हें बोलना था, ‘कड़ी नज़रों से जो देखेगा आंखें फोड़ दें उसकी, करे जो देश पर हमला भुजायें तोड़ दें उसकी।’ पर जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने हवा में हाथ लहराने की बजाय उपनिदेशक महोदय की तरफ इशारा करते हुए बोल दिया, ‘आंखें फोड़ दें उसकी.... भूजायें तोड़ दें उसकी....।’ इस पर उप निदेशक महोदय सकपका गये थे पर पंडाल में हास्य की फुहारें छूट गई थीं। बाद में हमें इसके लिये मास्टरजी से कुछ डांट भी खानी पड़ी थी। आखिर हम बहुत छोटे थे और हमें इसका भान भी नहीं था कि हमारी ज़द में उपनिदेशक महोदय आ जायेंगे। 

                                                                                                                              (शेष  अगले एपीसोड में )

रविवार, 6 जुलाई 2014

जीवन का प्रारंभिक दौर 



कुछ दिनों से यह ख्याल मन में आ रहा था कि अपनी बीती ज़िन्दगी के कुछ छुवे-अनछुवे पहलुओं को कुरेदा जाए और अपनी कहानी को अपने ही सामने रखा जाए। पर समझ में नहीं आ रहा था कि वो भूली दास्ताँ कहाँ से शुरू की जाए और उसका अंत कहाँ पर जाकर होगा। आज कुछ समय मिला तो कम्प्यूटर पर उँगलियाँ कुछ लिखने को मचल उठी हैं।  पर अभी भी मन में उलझन है कि अपनी ज़िन्दगी के किस पन्ने से अपनी कहानी शुरू करुं । चलिए मैं वहीँ से शुरू होता हूँ जहाँ से दोनों पैरों में चलने की कुछ जान और दिमाग में सोचने समझने की कुछ शक्ति आई थी। 

बात १९६५ के लगभग की है। पिता जी के संघर्षमय जीवन के लगभग अंत का शुरुवाती दौर था वह। पिताश्री रामेश्वर नारायण श्रीवास्तव कम उम्र की शादी के बाद चार बच्चों (तीन बेटे व् एक बेटी )  को लेकर माँ (श्रीमती मिथिलेश श्रीवास्तव ) के साथ अपनी कच्ची-पक्की गृहस्थी के साथ पीलीभीत से बहराइच आए थे। हाँ, उससे पहले उनकी जीवन यात्रा बिहार के ग्राम संग्रामपुर से शुरू होकर कृष्ण की नगरी मथुरा तक  सिमटी हुई थी।  पीलीभीत में कुछ समय नौकरी करते हुये उन्होंने माँ के सहयोग से छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करते हुये  एकाउंटेंसी की परिक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी।  और उनकी पहली पोस्टिंग बहराइच नगर पालिका में अकाउंटेंट के पद पर हुई थी।  हमारे दादाजी रेलवे में थे अतः पिताजी को इधर उधर घूम घूम कर अपना भविष्य बनाने का खूब समय व् चांस मिला था।  उस ज़माने में भी सरकारी नौकरी पाना बहुत कठिन नहीं तो बहुत आसान भी नहीं था। पिताजी ने इसके लिए रात-दिन काफी परिश्रम भी किया था। तब हमारे मम्मी-पापा की उतनी ही उम्र रही होगी जितनी उम्र में आज हम नौकरी-चाकरी की चिंता से बेखबर खेल-कूद में लगे रहते हैं।  
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