
एक दिन जब घर के सभी बड़े लोग पड़ोस के साथियों के साथ कोई फिल्म देखने गये थे, हमने अपने घर के अहाते में एक दूसरी ही फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी। मेरे मझले भैया मुन्ना जी पंडित जी बने, मैं दूल्हा और पडा़ेस की बिन्नू (बदला हुआ नाम) दुल्हन। आस-पडा़ेस के कुछ मजे़ लेने वाले मेरे हम साथियों में से कुछ बराती बन गये तो कुछ घराती। दूल्हा-दुल्हन ईंट-पत्थर जोड़कर बनाये गये सोफ़े पर सवार हुए और पंडित जी शादी के मंत्रोच्चारण में व्यस्त हो गये। मैंने कोई कच्ची गोलियां तो खेली नहीं थीं। शादी की सारी रस्में अच्छी तरह से बिना किसी विघ्न के निपट जायें इसका मैंने पहले से ही पक्का इंतज़ाम कर रखा था। बेशक मुझे शादी का अर्थ नहीं मालूम था पर यह ज़रूर पता था कि सात फेरों और मांग में सिंदूर डालने के बाद ही शादी पूर्ण होती है।
पंडित बने मुन्ना भैया मंत्रों के स्थान पर अगड़म-बगड़म बोले जा रहे थे और मैं बिन्नू के साथ तेजी से फेरे लेने में व्यस्त था। तेज़ी इसलिये भी थी कि कहीं अधूरे फेरों के बीच कोई लफड़ा न हो जाये और शादी बरबादी में बदल जाये। बिन्नू भी पैर में दर्द के बावज़ूद तेज़ी से चलते हुए मेरा पूरा साथ दे रही थी। परन्तु बुरा हो उस एक साथी का... इधर मैंने बिन्नू की मांग में अपनी मां की सिंदूर की पूरी की पूरी डिबिया उड़ेली और उधर बीच सिनेमा से उठाकर वह मेरी माँ और पापा जी को वहां का दृश्य दिखाने को बुला लाया। माँ और बाबू जी को देखते ही एक ओर मुन्ना भैया जहां अपनी पंडिताई छोड़कर भागे तो वहीं दूसरी ओर सारे घराती और बाराती भी रफूचक्कर हो लिये। पकड़ में आये तो केवल दूल्हा और दुल्हन। दुल्हन तो बेचारी पराई अमानत होने के कारण फिर भी बच गई पर मैं पूरी तरह से लपेटे में आ गया था। उस दिन मेरी जमकर पिटाई हुई। वह शानदार पिटाई और दूल्हे की ताजपोशी का दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरकर मुझे उस दिन भी भयभीत किये जा रहा था जब मैं जवान होकर अपनी असली शादी के समय दूल्हन की मांग में सिंदूर भरने को एकदम तैयार खड़ा था।
(शेष अगली किस्त में) 14 जनवरी,2015