शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

सोलहवीं किस्तः कैमिस्ट्री के टीचर के साथ मेरी कैमिस्ट्री...

हराइच के जीआईसी में नौवीं क्लास में हमारे केमिस्ट्री के मास्टर साब श्री मुनव्वर अली जी हुआ करते थे। उनका पढ़ाने का अनूठा अंदाज़ था। हँसी-हँसी में ही वह केमिस्ट्री जैसे कठिन विषय को भी इतनी सरलता से समझा जाते थे कि मुझ जैसे कम अक्ल छात्र के दिमाग में भी कुछ न कुछ रसायन भर ही जाता था। वह मुझे पढ़ाई के कारण न सही, कला की वजह से ही सही, पर मानते बहुत थे। बेशक जब मैं कभी अधूरा होमवर्क करके आता तो वह मेरे कान उमेठते हुए मज़ाक-मज़ाक में ही यह ज़रूर कहते, ‘क्यों रे किशोर कल क्या ढपालीपुरवा गाना गाने गये थे जो होमवर्क नहीं कर पाये?’ और कक्षा में हंसी की फुलझडि़यां छूट पड़तीं। हालांकि बाकी बच्चों के मामले में वह इतना भी विनम्र नहीं होते थे और किसी का होमवर्क न हो पाने या अधूरा होने पर वह उसकी अच्छी-खासी क्लास ले बैठते थे। उनके अच्छे व्यवहार एवं पढ़ाने के बेहतरीन ढंग के चलते ही मैं उनके घर ट्यूशन पढ़ने भी जाने लगा था। साल के अंत में पिताजी का तबादला झांसी हो गया तो वह झांसी शिफ्ट हो गये थे। पर हम सभी अभी भी बहराइच में ही पढ़ाई का सत्र पूरा होने की इंतज़ारी में थे। इस बीच मुनव्वर अली मास्साब जी की तीन-चार महीने की फीस भी मुझ पर चढ़ गई थी। वह हमारी मज़बूरी जानते थे अतः उन्होंने कभी फीस के लिये मुझे टोका भी नहीं और बिना बाधा मुझे पढ़ाते रहे। बाद में अचानक जब हम सभी झांसंी के लिये चलने लगे तब भी मास्साब ने अपनी ट्यूशन फीस का कोई जि़क्र नहीं किया। 

बहराइच से झासी आने के बाद फिर कभी हमें न बहराइच जाने का कभी कोई मौका मिला और न हम मास्साब का उधार ही चुकता कर पाये। धीरे-धीरे यह बात मेरे जेहन से भी निकलती चली गयी। बड़ा होने और नौकरी पर लग जाने के बाद एक दिन अचानक ही जब कहीं बहराइच का कोई जि़क्र उठा तो मुझे मुनव्वर अली मास्साब और उनकी फीस की याद आयी और मैं बेचैन हो उठा। मैंने बहराइच के अपने दोस्तों और यहां तक कि जीआईसी के कुछ अध्यापकों और प्रिंसिपल साहब तक को पत्र लिखकर उनके बारे में जानकारी चाही पर कहीं से भी मुझे उनके बारे में कोई सुराग हाथ नहीं लग सका। मैं अपनी कमाई में से मास्साब का उधार ब्याज सहित चुकता कर उनके ऋण से मुक्त होना चाहता था, पर ईश्वर ने कभी मुझे इसका मौका ही नहीं दिया और मैं हाथ मलता रह गया था। काफी दिनों बाद मैंने पुनः एक बार मास्साब जी को ढूंढ़ने की कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी। हां कुछ दिनों बाद एक दिन किसी मित्र के ज़रिये काफ़ी दिनों पूर्व ही उनका इंतकाल हो चुकने की खबर मुझे ज़रूर मिली थी। तब मैं घंटों उन्हें यादकर आँखों में आंसू लिये उदास बैठा रहा था। 

24 जुलाई,15 (शेष अगली किस्त में) 

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

पन्द्रहवीं किस्तः अधूरी फिल्में पूरा मज़ा...

हराइच में हमारे सरकारी क्वार्टर के सामने तब बच्छराज-बाबूलाल की बड़ी सी कोठी हुआ करती थी। घर के एकदम बगल में एक ओर जय हिंद कोठी; जिसमें नीचे थोक कपड़ों की अनेक दूकानें और ऊपर कोठी के मालिक तथा अनेक किरायेदारों का बसेरा था। घर के एक ओर बड़े से अहाते में सुन्दर सा ओंकार टाकीज बना हुआ था। यह सिनेमाहाल उसके मालिक के नाम पर ही था, जिन्हें हम ओंकार चाचा के नाम से जानते थे। सिनेमाहाल के अहाते में ही एक छोटी सी दुमंजिली मार्केट भी थी। ऊपर लाज और नीचे पान, चाय-नाश्ते आदि की दूकानों के अलावा एक छोटा सा बुकस्टाल भी था, जहां अमूमन फिल्मी किताबें या पत्रिकायें मिलती थीं। किस्सा तोता मैना, राशिफल, तीज-त्यौहारों की जानकारी वाली पुस्तकों और गुलशन नंदा आदि जैसे प्रसिद्ध लेखकों के उपन्यासों के अलावा वहां दो-दो, चार-चार पन्नों वाली फिल्मी गीतों की फोल्डरनुमा पुस्तकें भी मिलती थीं। हम (मैं और मेरे मुन्ना भैया) अक्सर उन्हीं को खरीदकर उनसे नये-नये गीत याद करते थे। 

अन्य लोगों की तरह ही ओंकार चाचा भी  हमारी गायिकी से सदा प्रभावित रहते थे। इसी कारण अक्सर उनकी मेहरबानी से हमें उनके सिनेमाहाल में चल रही नयी-नयी फिल्मों के कुछ टुकड़े मुफ्त में देखने को मिल जाते थे। उन टुकड़ों में ज़्यादातर वो गाने होते थे, जो हमें गाने के लिये तैयार करने होते थे। सिनेमाहाल में धुसने की शर्त यह होती थी कि हमें बाहर निकलकर पहले ओंकार चाचा को वह गाना गाकर सुनाना होगा। 

अक्सर जब हम सिनेमाहाल में कोई गाना या सीन देखने को घुसते, तब हमारा मन वहां ऐसा रम जाता कि सिनेमाहाल से बहार निकलने का मन ही नहीं होता था। हमें लगता था कि हम पूरा सिनेमा देखकर ही बाहर निकलें पर बुरा हो गेटकीपर रफ़ीक (शायद यही नाम था) अंकल का जो गाना खत्म होते ही हमें सिनेमाहाल से दूंढ़कर बाहर निकाल लाते थे। कई बार जब वह हमें सिनेमाहाल से बाहर निकालने के लिये अंधेरे में टार्च दिखाते हुए भीतर प्रवेश करते, तो हमारी घिघ्घी ही बंध जाती थी और हम उनकी पकड़ में आने के डर से अंधेरे में छिपने की कोशिश करने लगते पर कामयाबी अक्सर उन्हीं के हाथ लगती। अंततः वह हमें खोज ही लेते और पूरी फिल्म देखने के हमारे मनसूबे पर पानी फिर जाता। हम उन्हें मन ही मन गरियाते ज़रूर परन्तु इसमें उनका भी दोष नहीं होता था, दरअसल उन्हें तो पिताजी और ओंकार चाचा की ओर से ही आदेश मिला होता था कि हमें सिनेमाहाल में ज़्यादा पसरने का मौका न दिया जाये। इसके बावजूद हम टुकड़े-टुकड़े में ही सही हफ्ते-दो हफ्ते में पूरी फिल्म का मजा उठा ही लेते थे..
07 जुलाई,15         (शेष अगली किस्त में)