रविवार, 31 अगस्त 2014

पांचवी किस्तः नमकीन और हलुवा

चपन में हम जिन दांव-पेचों, नफा-नुकसान व चालाकियों आदि से मसरूफ होते हैं वो हमें समय के साथ-साथ अपने आस पास के परिवेश से स्वतः ही मिलती चली जाती हैं। बहराइच के उस सरकारी प्राइमरी स्कूल में धीरे-धीरे हमारा मन रमने लगा था। बेशक ये सदियों पुरानी बात न हो पर उन दिनों बहराइच जैसे छोटे से शहर में आज जैसे अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल नहीं थे। शिशु मंदिर व मांटेंसरी स्कूलों की गिनती ही खासे स्कूलों में होती थी। पर घर के नज़दीक होने व किन्हीं अन्य कारणों के चलते हम सरकारी स्कूल में ही रच-बस गये थे हमारा मन वहीं रमने लगा था। तब आज की तरह शायद ऐसी होड़ भी नहीं थी कि बच्चों को किसी महंगे प्राइवेट स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाये। उस दिन स्कूल के बच्चे बहुत खुश थे। शायद कोई फंक्शन था। हमें कोई अच्छा सा देशभक्तिपूर्ण गीत गाने को बोला गया था। सो हमने उसकी अच्छी खासी तैयारी भी कर ली थी। एक दिन पहले ही हमें बताया गया था कि अगले दिन सभी बच्चों को खाने के लिये स्कूल में नमकीन और हलुवा मिलेगा। सभी बच्चे इस बात को लेकर बहुत खुश थे। अगले दिन कुछ बच्चे तो घर से बिना कुछ खाये-पिये ही चले आये थे। स्कूल में नमकीन और हलुवा जो बंटना था। मेरा ध्यान भी गाना गाने से ज़्यादा नमकीन और हलुवे की ओर था। 

उस दिन एक मास्टर जी ने हमारे घर से एक-दो किलो के करीब नमक भी मंगवाया था। सो हमने बिना किसी हील-हुज्जत के उन्हें नमक की पोटली लाकर दे दी थी। उन दिनों नमक पैकेट में नहीं बल्कि नमक की डलियों के रूप में खुले में मिलता था। फंक्शन वाले दिन स्कूल में कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। जो बच्चे अक्सर कक्षा से गायब रहते थे वह भी उस दिन स्कूल आये हुए थे। मेरे भैया मुन्नाजी, मैं खुद और कुछ अन्य सुरीले बच्चे गाना गाने को एकदम तैयार बैठे थे। कार्यक्रम में सभी गायकों की सहपाठियों व शिक्षकों द्वारा खूब तारीफ की गई। पर उस दिन हेड मास्टर साहब के न होने की हमें काफी कमी खली थी। कार्यक्रम में वह होते तो हमें और भी अच्छा लगता क्योंकि उन्हें हमारी कला से बहुत प्यार था।

कार्यक्रम के समापन की घोषणा के साथ ही सभी बच्चों को लाइन में लग कर नाश्ता लेने को कह दिया गया था। सभी बच्चे धक्का-मुक्की और शोरगुल करते हुए लाइन में लग गये थे। और अंततः वह घड़ी आ ही गई जिसका हम सभी बच्चों को पिछले दिनों से काफी इंतज़ार था। सभी के हाथों में बारी-बारी से हलुवे की पत्तलें थमाई जाने लगी थीं। हालॉकि कहे अनुसार नमकीन का पत्तल कहीं भी नहीं दिख रहा था। जिन बच्चों को पत्तलें पकड़ा दी गई थीं उनमें से ज़्यादातर बच्चे तेजी से अपनी-अपनी पत्तलें लिये अपने-अपने घरों की ओर भाग गये थे। कुछ बच्चे हलुवे की पत्तलें पाकर खुश नहीं दिखाई पड़ रहे थे और ज़रा सा चख कर ही उन्होंने अपनी पत्तलें इधर-उधर फेंकना शुरू कर दिया था। जब हमारा नंबर आया तो हलुवा चखते ही हमारा मन भी खराब हो गया था। हलुवे में चीनी की बजाय नमक पड़ा हुआ था। और वह बेस्वाद लग रहा था। जब हमने दबी ज़ुबान से इसके बारे में पड़ताल की तो मालूम पड़ा कि हम बच्चों तक शायद ग़लत सूचना पहुंची थी। किसी ने बताया कि नाश्ते में नमकीन और हलुवे की बजाय नमकीन यानी नमक मिला हलुवा बंटने की बात कही गई थी। 

उस समय सूजी से आज की तरह उपमा जैसी डिश बनाने का प्रचलन भी नहीं था। फिर उतने सस्ते ज़माने में भी बच्चों के साथ ऐसा क्यों किया गया। वह किसी भ्रष्टाचार का अंग था या बच्चों के साथ कोई मज़ाक...? बच्चों के नन्हें दिमाग में इन बातों का अर्थ आ पाना मुश्किल था, उन दिनों।

31.08.2014                                                                                                         

शेष अगली किस्त में....

शनिवार, 2 अगस्त 2014

4थी किस्तः वो अलग किस्म के लोग


हराइच में हमारे अनेक मुस्लिम दोस्त थे। कुछ अनुसूचित जाति के भी थे। पर तब हमें इन छोटी, बड़ी जातियों के अंतर का कुछ पता नहीं होता था और न हम यह जानते थे कि हिंदूमुस्लिम दो अलग अलग कौमें हैं। शायद इसलिये भी कि हम अभी बहुत बच्चे थे और हमें इस तरह की अलगाव की बातें सीखने का अभी मौका नहीं मिला था। एक साथ खेलना] कूदना, पढ़ना.लिखना और स्कूल जाना। हम होली, दिवाली और ईद जैसे त्यौहारों पर एक साथ खुशियां मनाते थे और मन भर कर गुझिया, सेंवइयां खाते थे। पर हां एक बात उन दिनों जरूर देखने को मिलती थी, जब हमारे या किसी बड़े अधिकारी या स्वर्ण जाति वाले के यहां कोई खाने,पीने की पार्टी होती थी तो मेरे अनुसूचित जाति के दोस्तों के घर के लोग अपनी थाली, प्लेट व गिलास घर से ही लेकर आते थे। वो ऐसा क्यों करते थे और या उन्हें यह सब करने को कौन कहता था, तब हमें इसका पता नहीं होता था। शायद बचपन में ही उनके अंदर ये संस्कार भर दिये जाते थे कि वो हमसे कुछ अलग हट कर हैं। 

उन दिनों घरों में फ्लश लेट्रीन भी नहीं होती थी। सुबह-सुबह लेट्रीन साफ करने वाली एक काली व मोटी सी औरत सबके घरों में आती थी। वह एक बड़ी सी डलिया में मल भरकर सिर पर लाद कर ले जाती थी। उसे देखकर लगता था कि शायद वह कोई अलग किस्म की प्राणी है और उसे इसी काम के लिये भगवान जी ने इस धरती पर भेजा है। बेशक उसके हाथ, पैर, नाक और मुंह आदि सभी कुछ आम इंसानों जैसे ही थे। परन्तु हमें उससे दूर-दूर रहने की हिदायत थी। कहीं उससे हमारा शरीर छू गया तो हमें फिर से नहाना पड़ेगा, इस डर से हम उसके पास भी नहीं फटकते थे। उसे रात का बचा खुचा कुछ बासी खाना भी देना होता था तो हम वह सब दूर से ही उसके सामने रखकर भाग खड़े होते थे। उस समय मनुष्य का मल उठाने जैसे घृणित कार्य का मेहताना भी बहुत कम होता था। कहीं-कहीं तो सुनते थे कि इसके लिये उन्हें बस बासी खाना ही नसीब होता था। 

शहर से दूर उनके लिये सरकार ने एक कालोनी भी बसा रखी थी। वहां सभी लोग इसी जाति के और इसी काम में संलग्न रहने वाले थे। वे सभी चेहरे-मोहरे से भी प्रायः आम लोगों से अलग व एक जैसे दिखलाई  पड़ने वाले लोग थे। वह कालोनी आम कालोनियों से अलग थी और जब हम कभी उधर से गुजरते थे तो हमें लगता था कि वह किसी अनोखे गृह के प्राणी हैं और उन्हें इसी तरह से लंबी झाड़ू, डलिया और मल उठाने वाले उपकरणों के साथ एक अलग दुनिया में रहना है। यह बात हमारी समझ से बाहर थी कि जिनके साथ हम घर से बाहर या स्कूल में समान भाव से खेलते-कूदते थे वह घर के दरवाजे पर आते ही अछूत क्यों हो जाते थे। मां-पिता जी की कहानियों में अक्सर यही जिक्र होता था कि संसार के सभी प्राणियों को भगवान जी ने अपने हाथों से एक समान रूप से बनाया है। मेरे आज के कई अनुसूचित जातियों वाले प्रिय मित्र जब यह बताते हैं कि उनके गांव में अभी भी ऐसी कुछ परम्परायें जीवित हैं तो मुझे आश्चर्य होता है और अपना बचपन याद आ जाता है। मैं तब यह भी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि आजादी के इन छः दशकों में बड़े-बड़े बदलावों का दावा करने वाले हम लोग इस मामले में अभी भी क्यों पीछे के पीछे ही रह गये हैं, चाहे थोड़ा-बहुत ही सही।


(शेष अगली किस्त में)