शनिवार, 26 जुलाई 2014

तीसरी किस्तः विवशता

ग़रीबी, बेरोज़गारी और महंगाई का रिश्ता मनुष्य के साथ शायद प्रारम्भ से ही रहा है। हम आज इन सबके लिये हाय-हाय बेशक करते हों पर छोटे-बड़े किसी न किसी रूप में यह हर युग में मौजू़द था। फर्क़ बस इतना ही है कि आज बहुत से लोग जो चीजें सौ-पचास में खरीदने के लिये दस बार सोचते हैं, तब के लोगों के लिये उन चीज़ों को चवन्नी, अठन्नी में भी खरीद पाना मुश्किल रहता था। हम लोग कोई बहुत रईस नहीं तो बहुत दीन-हीन भी नहीं थे। पिता जी की सीमित तनख़्वाह में भी हम उस शहर में शान से रह रहे थे। 

नगर पालिका व बहराईच शहर में अपने कार्य व व्यवहार से उन्होंने अच्छा रुतबा भी जमा लिया था। नगर में कोई सर्कस, मेला या काला जादू आदि का शो होता तो हमें उके पास सरलता से मिल जाते। पासों की संख्या भी इतनी होतीे कि उनसे हमारे मित्र आदि के घर वाले भी लाभ उठा लेते थे। घर के बगल में स्थित ओंकार सिनेमा हाल के रियायती पास तो किसी फिल्म का पहला, दूसरा दिन होने पर भी अपने आप घर आ जाता था। इसका कारण शायद यह भी था कि उस समय इस तरह के सभी कार्यों का कुछ न कुछ वास्ता नगर पालिका से ज़रूर पड़ता था। पाठशाला में भी हमें एकाउंटेंट साहब का शहज़ादा होने के कारण विशेष स्थान प्राप्त था। कभी स्कूल आने में देरी हो जाये, हमारा होम वर्क पूरा न हो या हम किसी सवाल का जवाब न दे पायें तो पिता जी के नाम के चलते हमें अध्यापकगण प्रायः कम ही टोकते-टाकते थे। और इसी के चलते कभी हमें और छात्रों के मुकाबले परीक्षा में दो-चार नंबर ज़्यादा भी मिल जाते थे। इसका कारण पिता जी की साख, कार्य-व्यवहार के अलावा एक दिलचस्प पहलू शायद यह भी रहा था कि अध्यापकों की तन्ख़्वाह तब नगर पालिका से ही बनकर आती थी। हालांकि इन बातों से अनभिज्ञ तब हमें यह नहीं पता होता था कि हमारे साथ यह विशेष रियायत हमारे हित में है या अहित में। हम तो इसी में खुश रहते थे कि हमें स्कूल में विशेष तवज्जो प्राप्त है और हमें एक अलग नज़रिये से देखा जाता है।

बात बहुत पुरानी होने के कारण हमें अपनी पाठशाला के सभी अध्यापकों की तो आज याद नहीं रही परन्तु हमारे हेड मास्टर जी की स्मृति आज भी हमारे जेहन में मौजू़द है। खद्दर की धोती, कुर्ते और गांधी टोपी में वह सादगी की मूरत लगते थे। उनका रहन-सहन व पढ़ाने का अंदाज़ कुछ-कुछ उस समय की फिल्मों में दिखाई देने वाले आदर्श अध्यापकों जैसा ही होता था। नियम से साफ-सुथरे कपड़ों में माथे पर लंबा सा टीका लगाये जब वह पाठशाला में घुसते थे तो उनकी आभा और व्यक्तित्व के सामने हमारा सिर स्वतः ही श्रृद्धा से झुक जाता था। उनका बेटा, जो शायद किसी बड़ी कक्षा का विद्यार्थी था, अक्सर अपने स्कूल की छुट्टी होने पर हमारी पाठशाला में आ जाता था। पिता-पुत्र दोनों पाठशाला में प्रायः एक साथ ही लंच करते थे। उनका लंच याद कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आंखें नम हो ती हैं। पाठशाला के अहाते में एक बड़ा सा अमरूद का पेड़ लगा था। हम अनके विद्यार्थी अक्सर उसके अमरूद तोड़-तोड़कर खाया करते थे। इसके लिये किसी को कोई मनाही या कम ज़्यादा खा लेने की पाबंदी नहीं थी। 

हमने अपने हेडमास्टर जी व उनके बेटे को तब अनेक बार उसी पेंड़ के कच्चे-पक्के अमरूद व नमक के साथ रोटी हलक से नीचे उतारते देखा था।

दिनांकः 26.07.2014

शेष अगली किस्त में...

रविवार, 13 जुलाई 2014

द्वितीय किस्तः आँखें फोड़ दें उसकी...


ये शहर और नये लोगों के बीच सब कुछ अनोखा सा था। शुरू-शुरू में जल बोर्ड के एक बड़े से अहाते में एक अदद छोटा सा अस्थाई सरकारी मकान पाने के बाद शीघ्र ही हमें एक बड़ा सा सरकारी मकान मिल गया था और हम उसमें शिफ्ट हो गये थे। पोस्ट ऑफिस के सामने और बड़ी सी जयहिंद कोठी के बगल में स्थित इस मकान के एक ओर भव्य ओंकार सिनेमा हाल था। और लगभग 2-3 फर्लांग की दूरी पर ही बड़े से पार्क के बीच अंग्रेजों के ज़माने का बना आकर्षक व काफी ऊंचा घंटाघर। वहीं चौक बाज़ार था जो बहराइच का मुख्य बाज़ार था। शहर छोटा सा था परन्तु उस समय के हिसाब से ठीक-ठाक था। हमें शहर का मिजाज़ समझने में कुछ समय ज़रूर लगा पर धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों मैं होश संभालता गया बहराइच शहर मेरी रगों में बसता चला गया। 


हम सभी को साहित्य व संगीत का शौक विरासत में मिला था। मेरे मम्मी-पापा की रूचि प्रारम्भ से ही संगीत, सिनेमा में थी। विशेषकर मेरे मझले भैया अरुण श्रीवास्तव ‘मुन्नाजी’ तो बहुत अच्छा गाते थे और उनमें बचपन से ही साहित्य की भी काफी समझ थी। यही वजह थी कि जब भी कोई मेहमान घर पर आता हमसे गाना गाने की फरमाइश ज़रूर की जाती। तुतली आवाज़ में ही सही हमें तबके अनेक फिल्मी गाने रटे रहते थे और किसी के सामने गाने में हमें ज़्यादा झिझक भी नहीं होती थी। उम्र के साथ-साथ हमारी आवाज़ भी साफ होती चली गई थी। हम उस समय नगर पालिका द्वारा संचालित जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे वहां भी हमारे गीत-संगीत का जादू चल गया था। स्कूल की प्रार्थना और जनगणमन गायन तक में हमें शामिल किये बिना बात नहीं बनती थी। उसी स्कूल में पढ़ते हुए सबसे पहले एक बार हमने छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में देशभक्ति का एक नाटक खेला था। कई स्कूलों के बच्चों को घंटाघर के प्रांगण में प्रदर्शन के लिये बुलाया गया था। सभी स्कूल अपने-अपने बच्चों की सांस्कृतिक टोली लेकर आये थे। हमने भी खूब तैयारी कर रखी थी। कार्यक्रम के समय मंच के एक ओर कुर्सियों पर बेसिक शिक्षा परिषद के वरिष्ठ अधिकारी विराजमान थे और बाकी हिस्से में सभी को अपना-अपना प्रदर्शन करना था। सामने सैकड़ों की तादाद में नगर की जनता थी। 


हमारे नाटक में एक पंक्तियां मुन्ना भैया को बोलनी थी। उसमें दुश्मन को ललकारते हुए उन्हें बोलना था, ‘कड़ी नज़रों से जो देखेगा आंखें फोड़ दें उसकी, करे जो देश पर हमला भुजायें तोड़ दें उसकी।’ पर जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने हवा में हाथ लहराने की बजाय उपनिदेशक महोदय की तरफ इशारा करते हुए बोल दिया, ‘आंखें फोड़ दें उसकी.... भूजायें तोड़ दें उसकी....।’ इस पर उप निदेशक महोदय सकपका गये थे पर पंडाल में हास्य की फुहारें छूट गई थीं। बाद में हमें इसके लिये मास्टरजी से कुछ डांट भी खानी पड़ी थी। आखिर हम बहुत छोटे थे और हमें इसका भान भी नहीं था कि हमारी ज़द में उपनिदेशक महोदय आ जायेंगे। 

                                                                                                                              (शेष  अगले एपीसोड में )

रविवार, 6 जुलाई 2014

जीवन का प्रारंभिक दौर 



कुछ दिनों से यह ख्याल मन में आ रहा था कि अपनी बीती ज़िन्दगी के कुछ छुवे-अनछुवे पहलुओं को कुरेदा जाए और अपनी कहानी को अपने ही सामने रखा जाए। पर समझ में नहीं आ रहा था कि वो भूली दास्ताँ कहाँ से शुरू की जाए और उसका अंत कहाँ पर जाकर होगा। आज कुछ समय मिला तो कम्प्यूटर पर उँगलियाँ कुछ लिखने को मचल उठी हैं।  पर अभी भी मन में उलझन है कि अपनी ज़िन्दगी के किस पन्ने से अपनी कहानी शुरू करुं । चलिए मैं वहीँ से शुरू होता हूँ जहाँ से दोनों पैरों में चलने की कुछ जान और दिमाग में सोचने समझने की कुछ शक्ति आई थी। 

बात १९६५ के लगभग की है। पिता जी के संघर्षमय जीवन के लगभग अंत का शुरुवाती दौर था वह। पिताश्री रामेश्वर नारायण श्रीवास्तव कम उम्र की शादी के बाद चार बच्चों (तीन बेटे व् एक बेटी )  को लेकर माँ (श्रीमती मिथिलेश श्रीवास्तव ) के साथ अपनी कच्ची-पक्की गृहस्थी के साथ पीलीभीत से बहराइच आए थे। हाँ, उससे पहले उनकी जीवन यात्रा बिहार के ग्राम संग्रामपुर से शुरू होकर कृष्ण की नगरी मथुरा तक  सिमटी हुई थी।  पीलीभीत में कुछ समय नौकरी करते हुये उन्होंने माँ के सहयोग से छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करते हुये  एकाउंटेंसी की परिक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी।  और उनकी पहली पोस्टिंग बहराइच नगर पालिका में अकाउंटेंट के पद पर हुई थी।  हमारे दादाजी रेलवे में थे अतः पिताजी को इधर उधर घूम घूम कर अपना भविष्य बनाने का खूब समय व् चांस मिला था।  उस ज़माने में भी सरकारी नौकरी पाना बहुत कठिन नहीं तो बहुत आसान भी नहीं था। पिताजी ने इसके लिए रात-दिन काफी परिश्रम भी किया था। तब हमारे मम्मी-पापा की उतनी ही उम्र रही होगी जितनी उम्र में आज हम नौकरी-चाकरी की चिंता से बेखबर खेल-कूद में लगे रहते हैं।  
('शेष  अगले एपीसोड में )