मंगलवार, 28 जून 2016

तेइसवीं किस्तः देश भक्ति का नशा

देश प्रेम हमारे भीतर बचपन से ही कूट कूट कर भरा हुआ था। तब हमें गली मोहल्ले के सभी लोग बस पक्के भारतीय ही लगते थे। हिन्दू-मुस्लिम के भेद से हम सभी बच्चे तब अंजान होते थे। शाहिद, इदरीस आदि उस समय हमारे प्रिय लंगोटिया यारों में से हुआ करते थे। जितनी उन्हें हमारी होली की गुजिया भाती उतनी ही हमें उनकी ईद की सेंवइयां भी। अक्सर हम अपनी जेब के पैसे बचाकर या बड़े-बूढ़ों से थोड़ा बहुत चंदा मांग-मांग कर घर के अहाते में ही पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व भी मना लेते थे। उस दिन हम कुछ बच्चों को इकठ्ठा कर विभिन्न ज्ञानवर्द्धक प्रतियोगितायें भी आयोजित करते और फिर हम उम्र बच्चों को काॅपी-पेंसिल उपहार में बांटते हुए समारोह का समापन करते।

हमारे हिन्दी के मास्टर जी हमारी देश प्रेम की भावनायें अच्छी तरह से समझते थे, यही वजह थी कि क्लास में अक्सर खाली समय में वह मुझसे कोई देश भक्ति का गीत अवश्य सुनते थे। उस समय प्रायः मास्टर जी मुझसे सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा लिखा गया गीत ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाॅसी वाली रानी थी...’ सुनाने को कहते। तब मैं पूरी तरह से मदमस्त होकर वह गीत सुनाता और मास्टर जी सहित सभी सहपाठी भाव विभोर होकर रह जाते।

यह गीत गाते समय मुझे कुछ ऐसा महसूस होता मानों मैंने खुद भी कभी रानी झाँसी की सेना में रहते हुए उनके साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया हो। और  हाँ, उस समय यह

गीत गाते हुए हमें इस बात का रंच मात्र भी आभाष नहीं होता था कि यह गीत गाते गाते पिता जी के ट्रांस्फर के चलते हम कभी बहराइच छोड़कर सीधे लक्ष्मीबाई के नगर ‘झाँसी’ में ही जा बसेंगे।’

28 जून,2016 (शेष अगली किस्त में)

मंगलवार, 3 मई 2016

22वीं किस्तः छोटे कलाकारों से परहेज़

हराइच में तब दो ही सिनेमा हाल हुआ करते थे। ओंकार टाकीज़ तो हमारे घर के एकदम बगल में ही था पर हरी टाकीज़ घर से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर स्थित था। उस समय फिल्मों के प्रचार का तरीका भी कुछ अलग हटकर हुआ करता था। किसी भी नई फिल्म के शहर में आने पर तांगे पर उसका पोस्टर लगाकर पूरे शहर में उसका प्रचार किया जाता था। फिल्म के गानों के साथ-साथ, बीच-बीच में एनाउंसमेंट भी चलता रहता था। तांगे के पीछे भागते हम जैसे उत्पाती बच्चों के बीच पर्चे बांटकर भी फिल्मों का प्रचार किया जाता था। सिनेमा हाल तक दर्शकों को खींचने के लिये अक्सर बाहर से कुछ छोटे-मोटे पेशेवर कलाकार बुलाये जाते थे। और फिल्म के बीच-बीच में उनके डांस और गानों के कार्यक्रम भी चलते रहते थे। कई बार तो परदे के आगे छोटे-बड़े पशुओं की कलाकारी भी देखने को मिल जाती थी। निश्चय ही इनसे फिल्म देखने वालों की संख्या कुछ न कुछ ज़रूर बढ़ती थी। घर में भी हमें कलाकारी का कुछ शौक था अतः ऐसे समय हम भी सिनेमा हाल के बार-बार चक्कर लगाते रहते थे। 

अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले कलाकारों की एक झलक पाने के लिये हम ठण्ड, गर्मी या घूप की भी परवाह नहीं करते थे। और उनके ठहरने के स्थान पर निरन्तर चक्कर लगाते रहते थे। घर में कलाकारी का माहौल होने के बावजू़द नाते-रिश्तेदारों को यह सब ज़्यादा पसंद नहीं था। दरअसल उस वक्त थियेटर के छोटे-मोटे कलाकारों/डांसरों आदि को आज की तरह बहुत अधिक सम्मान भी नहीं प्राप्त था। आसपास के लोग या समाज क्या कहेगा के चक्कर में घर वाले हमें उनके ज़्यादा नज़दीक भी नहीं जाने देना चाहते थे। इसके विपरीत मेरे और मुन्ना भैया के ऊपर फिल्म और उन कलाकारों का, बेश कवे छोटे ही रहे हों; नशा हर वक्त छाया रहता था। 

एक बार जब ऐसे ही कुछ कलाकार ओंकार टाकीज में अपनी कला का प्रदर्शन करने आये हुए थे तब बार-बार उनके चक्कर लगाने से मुन्ना भैया की उनसे खासी पहचान हो गई थी। और उस दिन तो मुन्ना भैया और मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा जब उनमें से एक बेहतरीन डांस कलाकार हमारे आग्रह पर हमारे घर तक चला आया था। किसी अपरिचित और छोटे डांस कलाकार को घर के दरवाजे पर देखकर पडौसियों में तो काना फूसी हुई ही घर के लोग भी किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा-से गये। 

मुन्ना भैया ने उस कलाकार को घर के भीतर बैठालने या उसकी आवभगत करने की कोशिश की पर सफल नहीं हो सके। लोक-लाज़ के डर से उसे घर के भीतर लाने की अनुमति नहीं मिल सकी और अंततः बेचारे कलाकार को अपमानित सा होकर वापस जाना पड़ा। 

हमें काफी समय तक उस कलाकार का यह अपमान सालता रहा था क्योंकि हम खुद कला क्षेत्र से जुड़े हुए थे और हम कला तथा कलाकारों के कद्रदान भी काफी थे। 

3 मई,2016 (शेष अगली किस्त में)