
नगर पालिका व बहराईच शहर में अपने कार्य व व्यवहार से उन्होंने अच्छा रुतबा भी जमा लिया था। नगर में कोई सर्कस, मेला या काला जादू आदि का शो होता तो हमें उनके पास सरलता से मिल जाते। पासों की संख्या भी इतनी होतीे कि उनसे हमारे मित्र आदि के घर वाले भी लाभ उठा लेते थे। घर के बगल में स्थित ओंकार सिनेमा हाल के रियायती पास तो किसी फिल्म का पहला, दूसरा दिन होने पर भी अपने आप घर आ जाता था। इसका कारण शायद यह भी था कि उस समय इस तरह के सभी कार्यों का कुछ न कुछ वास्ता नगर पालिका से ज़रूर पड़ता था। पाठशाला में भी हमें एकाउंटेंट साहब का शहज़ादा होने के कारण विशेष स्थान प्राप्त था। कभी स्कूल आने में देरी हो जाये, हमारा होम वर्क पूरा न हो या हम किसी सवाल का जवाब न दे पायें तो पिता जी के नाम के चलते हमें अध्यापकगण प्रायः कम ही टोकते-टाकते थे। और इसी के चलते कभी हमें और छात्रों के मुकाबले परीक्षा में दो-चार नंबर ज़्यादा भी मिल जाते थे। इसका कारण पिता जी की साख, कार्य-व्यवहार के अलावा एक दिलचस्प पहलू शायद यह भी रहा था कि अध्यापकों की तन्ख़्वाह तब नगर पालिका से ही बनकर आती थी। हालांकि इन बातों से अनभिज्ञ तब हमें यह नहीं पता होता था कि हमारे साथ यह विशेष रियायत हमारे हित में है या अहित में। हम तो इसी में खुश रहते थे कि हमें स्कूल में विशेष तवज्जो प्राप्त है और हमें एक अलग नज़रिये से देखा जाता है।
बात बहुत पुरानी होने के कारण हमें अपनी पाठशाला के सभी अध्यापकों की तो आज याद नहीं रही परन्तु हमारे हेड मास्टर जी की स्मृति आज भी हमारे जेहन में मौजू़द है। खद्दर की धोती, कुर्ते और गांधी टोपी में वह सादगी की मूरत लगते थे। उनका रहन-सहन व पढ़ाने का अंदाज़ कुछ-कुछ उस समय की फिल्मों में दिखाई देने वाले आदर्श अध्यापकों जैसा ही होता था। नियम से साफ-सुथरे कपड़ों में माथे पर लंबा सा टीका लगाये जब वह पाठशाला में घुसते थे तो उनकी आभा और व्यक्तित्व के सामने हमारा सिर स्वतः ही श्रृद्धा से झुक जाता था। उनका बेटा, जो शायद किसी बड़ी कक्षा का विद्यार्थी था, अक्सर अपने स्कूल की छुट्टी होने पर हमारी पाठशाला में आ जाता था। पिता-पुत्र दोनों पाठशाला में प्रायः एक साथ ही लंच करते थे। उनका लंच याद कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आंखें नम हो आती हैं। पाठशाला के अहाते में एक बड़ा सा अमरूद का पेड़ लगा था। हम अनके विद्यार्थी अक्सर उसके अमरूद तोड़-तोड़कर खाया करते थे। इसके लिये किसी को कोई मनाही या कम ज़्यादा खा लेने की पाबंदी नहीं थी।
हमने अपने हेडमास्टर जी व उनके बेटे को तब अनेक बार उसी पेंड़ के कच्चे-पक्के अमरूद व नमक के साथ रोटी हलक से नीचे उतारते देखा था।
दिनांकः 26.07.2014
शेष अगली किस्त में...