रविवार, 6 जुलाई 2014

जीवन का प्रारंभिक दौर 



कुछ दिनों से यह ख्याल मन में आ रहा था कि अपनी बीती ज़िन्दगी के कुछ छुवे-अनछुवे पहलुओं को कुरेदा जाए और अपनी कहानी को अपने ही सामने रखा जाए। पर समझ में नहीं आ रहा था कि वो भूली दास्ताँ कहाँ से शुरू की जाए और उसका अंत कहाँ पर जाकर होगा। आज कुछ समय मिला तो कम्प्यूटर पर उँगलियाँ कुछ लिखने को मचल उठी हैं।  पर अभी भी मन में उलझन है कि अपनी ज़िन्दगी के किस पन्ने से अपनी कहानी शुरू करुं । चलिए मैं वहीँ से शुरू होता हूँ जहाँ से दोनों पैरों में चलने की कुछ जान और दिमाग में सोचने समझने की कुछ शक्ति आई थी। 

बात १९६५ के लगभग की है। पिता जी के संघर्षमय जीवन के लगभग अंत का शुरुवाती दौर था वह। पिताश्री रामेश्वर नारायण श्रीवास्तव कम उम्र की शादी के बाद चार बच्चों (तीन बेटे व् एक बेटी )  को लेकर माँ (श्रीमती मिथिलेश श्रीवास्तव ) के साथ अपनी कच्ची-पक्की गृहस्थी के साथ पीलीभीत से बहराइच आए थे। हाँ, उससे पहले उनकी जीवन यात्रा बिहार के ग्राम संग्रामपुर से शुरू होकर कृष्ण की नगरी मथुरा तक  सिमटी हुई थी।  पीलीभीत में कुछ समय नौकरी करते हुये उन्होंने माँ के सहयोग से छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करते हुये  एकाउंटेंसी की परिक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी।  और उनकी पहली पोस्टिंग बहराइच नगर पालिका में अकाउंटेंट के पद पर हुई थी।  हमारे दादाजी रेलवे में थे अतः पिताजी को इधर उधर घूम घूम कर अपना भविष्य बनाने का खूब समय व् चांस मिला था।  उस ज़माने में भी सरकारी नौकरी पाना बहुत कठिन नहीं तो बहुत आसान भी नहीं था। पिताजी ने इसके लिए रात-दिन काफी परिश्रम भी किया था। तब हमारे मम्मी-पापा की उतनी ही उम्र रही होगी जितनी उम्र में आज हम नौकरी-चाकरी की चिंता से बेखबर खेल-कूद में लगे रहते हैं।  
('शेष  अगले एपीसोड में )


           

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