शनिवार, 2 अगस्त 2014

4थी किस्तः वो अलग किस्म के लोग


हराइच में हमारे अनेक मुस्लिम दोस्त थे। कुछ अनुसूचित जाति के भी थे। पर तब हमें इन छोटी, बड़ी जातियों के अंतर का कुछ पता नहीं होता था और न हम यह जानते थे कि हिंदूमुस्लिम दो अलग अलग कौमें हैं। शायद इसलिये भी कि हम अभी बहुत बच्चे थे और हमें इस तरह की अलगाव की बातें सीखने का अभी मौका नहीं मिला था। एक साथ खेलना] कूदना, पढ़ना.लिखना और स्कूल जाना। हम होली, दिवाली और ईद जैसे त्यौहारों पर एक साथ खुशियां मनाते थे और मन भर कर गुझिया, सेंवइयां खाते थे। पर हां एक बात उन दिनों जरूर देखने को मिलती थी, जब हमारे या किसी बड़े अधिकारी या स्वर्ण जाति वाले के यहां कोई खाने,पीने की पार्टी होती थी तो मेरे अनुसूचित जाति के दोस्तों के घर के लोग अपनी थाली, प्लेट व गिलास घर से ही लेकर आते थे। वो ऐसा क्यों करते थे और या उन्हें यह सब करने को कौन कहता था, तब हमें इसका पता नहीं होता था। शायद बचपन में ही उनके अंदर ये संस्कार भर दिये जाते थे कि वो हमसे कुछ अलग हट कर हैं। 

उन दिनों घरों में फ्लश लेट्रीन भी नहीं होती थी। सुबह-सुबह लेट्रीन साफ करने वाली एक काली व मोटी सी औरत सबके घरों में आती थी। वह एक बड़ी सी डलिया में मल भरकर सिर पर लाद कर ले जाती थी। उसे देखकर लगता था कि शायद वह कोई अलग किस्म की प्राणी है और उसे इसी काम के लिये भगवान जी ने इस धरती पर भेजा है। बेशक उसके हाथ, पैर, नाक और मुंह आदि सभी कुछ आम इंसानों जैसे ही थे। परन्तु हमें उससे दूर-दूर रहने की हिदायत थी। कहीं उससे हमारा शरीर छू गया तो हमें फिर से नहाना पड़ेगा, इस डर से हम उसके पास भी नहीं फटकते थे। उसे रात का बचा खुचा कुछ बासी खाना भी देना होता था तो हम वह सब दूर से ही उसके सामने रखकर भाग खड़े होते थे। उस समय मनुष्य का मल उठाने जैसे घृणित कार्य का मेहताना भी बहुत कम होता था। कहीं-कहीं तो सुनते थे कि इसके लिये उन्हें बस बासी खाना ही नसीब होता था। 

शहर से दूर उनके लिये सरकार ने एक कालोनी भी बसा रखी थी। वहां सभी लोग इसी जाति के और इसी काम में संलग्न रहने वाले थे। वे सभी चेहरे-मोहरे से भी प्रायः आम लोगों से अलग व एक जैसे दिखलाई  पड़ने वाले लोग थे। वह कालोनी आम कालोनियों से अलग थी और जब हम कभी उधर से गुजरते थे तो हमें लगता था कि वह किसी अनोखे गृह के प्राणी हैं और उन्हें इसी तरह से लंबी झाड़ू, डलिया और मल उठाने वाले उपकरणों के साथ एक अलग दुनिया में रहना है। यह बात हमारी समझ से बाहर थी कि जिनके साथ हम घर से बाहर या स्कूल में समान भाव से खेलते-कूदते थे वह घर के दरवाजे पर आते ही अछूत क्यों हो जाते थे। मां-पिता जी की कहानियों में अक्सर यही जिक्र होता था कि संसार के सभी प्राणियों को भगवान जी ने अपने हाथों से एक समान रूप से बनाया है। मेरे आज के कई अनुसूचित जातियों वाले प्रिय मित्र जब यह बताते हैं कि उनके गांव में अभी भी ऐसी कुछ परम्परायें जीवित हैं तो मुझे आश्चर्य होता है और अपना बचपन याद आ जाता है। मैं तब यह भी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि आजादी के इन छः दशकों में बड़े-बड़े बदलावों का दावा करने वाले हम लोग इस मामले में अभी भी क्यों पीछे के पीछे ही रह गये हैं, चाहे थोड़ा-बहुत ही सही।


(शेष अगली किस्त में)

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