रविवार, 1 फ़रवरी 2015

ग्यारहवीं किस्त: न शरारतें घटीं और न पिटाई...

ज से उलट यूं तो कलाकारी और पढ़ाई के साथ मेरा पूरा बचपन ही शरारतों से भरा-पूरा रहा परन्तु जीवन की कुछ शरारतें ऐसी भी रहीं जो आज भी याद आती हैं तो मुझे अपने आप पर कुछ शर्म सी महसूस होने लगती है। वो बात अलग है कि मेरी शरारतें अकेले की नहीं होती थीं और उनमें मेरी मित्र मंडली व मेरे स्व. भाई मुन्ना जी का भी थोड़ा बहुत योगदान रहता था परन्तु प्रायः जब-जब पिटने का नंबर आता तो मैदान में अकेला मैं ही अपने आपको खड़ा पाता। 

उन दिनों पिता जी का पड़ोस के एक छोटे से रेस्टारेंट में खाता चलता था यानी कि आपातकाल में अक्सर वहां से मेहमानों आदि के लिये चाय-नास्ता आता और फिर एक साथ ही महीने भर का हिसाब होता। उस रेस्टोरेंट के समोसे और आलू-बण्डे बहुत प्रसिद्ध थे। 11-12 बजे के आस पास जब वो तैयार होते तब उन्हें खाने वालों की लूट सी मच जाती, ऐसा लगता मानों वह सब फ्री में बंट रहा हो। 

एक दिन हम कुछ सहपाठी स्कूल से जल्दी छूट गये। हम छः दोस्त घर के सामने स्थित पोस्ट ऑफिस की साढ़ियों पर आकर बैठ गये थे। उसी समय जब अचानक हमारी नाकों में पास के रेस्टोरेंट से समोसे और आलू बण्डे के बनने की खुशबू घुसी तो हमारा दिल उन्हें गरमा-गरम खाने को मचल उठा। उस समय हमारे पास में न तो पैसे थे और न ही अपने आपको उन्हें खाने से रोक पाने की ताक़त ही। फिर आखिर हम करते भी क्या। अचानक हमारे दिमाग का कीड़ा कुलबुलाया और हमारे खुराफ़ाती दिमाग ने एक नए आइडिये को जन्म दे डाला। मैंने अपनी कॉपी से आधा पृष्ठ निकाला उस पर 6 समोसे भेजने की टिप्पणी लिखकर नीचे पिता जी के साइन मार दिये। एक सहपाठी को यह सिखाकर कि यह पर्ची देकर रेस्टोरेंट वाले अंकल से बोलना कि एकाउंटेंट साहब के घर मेहमान आये हैं अतः उन्होंने 6 गरम समोसे तुरन्त मंगवाये हैं, रेस्टोरेंट की ओर भेज दिया  हमारी चाल कामयाब रही और हमें बिना किसी बाधा के गरमागरम समोसे खाने को मिल गये। पर एक-एक समोसे से जब हमारा मन नहीं भरा तो अगली बार मैंने दोस्तों की ताज़ी सलाह पर आलू बण्डे की भी पर्ची काटकर एक दूसरे सहपाठी के हाथों वहां भिजवा दी। हम दूसरी बार भी अपनी योजना में कामयाब हो गये थे। रेस्टोरेंट वाले अंकल को सचमुच यही लगा कि एकाउंटेंट साहब के घर में कोई खास मेहमान आये हुए हैं और उनके ज़ोरदार स्वागत में सभी लगे हुए हैं। पर कहते हैं न कि लालच बुरी बला है। जब तीसरी बार हमने फिर से एक-एक समोसे की चाहत में किसी अन्य सहपाठी को वहां भेजा तो कुछ ही देर में हम सबके होशों के फाकता होने की नौबत आ गई। 

अंतिम बार समोसों के स्थान पर उस लड़के का कान पकड़े रेस्टोरेंट वाले अंकल जी भी हमारे सामने थे। हमारी उस्तादी का कचरा निकल गया था। अपनी पोल-पट्टी खुलने की खबर आते ही हमारे बीच अफ़रा-तफ़री सी मच गई। मौका-ए-वारदात से अन्य सभी तो भाग लिये, पकड़ में आया तो हर  बार की तरह मैं ही। और फिर जब शाम को भरी महफिल में रेस्टोरेंट वाले अंकल के सामने मेरी पेशी हुई तो आगे के हाल का अंदाज़ कोई भी सहज ही लगा सकता है।

01 फरवरी,15 (शेष अगली किस्त में)  

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