
अन्य लोगों की तरह ही ओंकार चाचा भी हमारी गायिकी से सदा प्रभावित रहते थे। इसी कारण अक्सर उनकी मेहरबानी से हमें उनके सिनेमाहाल में चल रही नयी-नयी फिल्मों के कुछ टुकड़े मुफ्त में देखने को मिल जाते थे। उन टुकड़ों में ज़्यादातर वो गाने होते थे, जो हमें गाने के लिये तैयार करने होते थे। सिनेमाहाल में धुसने की शर्त यह होती थी कि हमें बाहर निकलकर पहले ओंकार चाचा को वह गाना गाकर सुनाना होगा।
अक्सर जब हम सिनेमाहाल में कोई गाना या सीन देखने को घुसते, तब हमारा मन वहां ऐसा रम जाता कि सिनेमाहाल से बहार निकलने का मन ही नहीं होता था। हमें लगता था कि हम पूरा सिनेमा देखकर ही बाहर निकलें पर बुरा हो गेटकीपर रफ़ीक (शायद यही नाम था) अंकल का जो गाना खत्म होते ही हमें सिनेमाहाल से दूंढ़कर बाहर निकाल लाते थे। कई बार जब वह हमें सिनेमाहाल से बाहर निकालने के लिये अंधेरे में टार्च दिखाते हुए भीतर प्रवेश करते, तो हमारी घिघ्घी ही बंध जाती थी और हम उनकी पकड़ में आने के डर से अंधेरे में छिपने की कोशिश करने लगते पर कामयाबी अक्सर उन्हीं के हाथ लगती। अंततः वह हमें खोज ही लेते और पूरी फिल्म देखने के हमारे मनसूबे पर पानी फिर जाता। हम उन्हें मन ही मन गरियाते ज़रूर परन्तु इसमें उनका भी दोष नहीं होता था, दरअसल उन्हें तो पिताजी और ओंकार चाचा की ओर से ही आदेश मिला होता था कि हमें सिनेमाहाल में ज़्यादा पसरने का मौका न दिया जाये। इसके बावजूद हम टुकड़े-टुकड़े में ही सही हफ्ते-दो हफ्ते में पूरी फिल्म का मजा उठा ही लेते थे..
07 जुलाई,15 (शेष अगली किस्त में)
07 जुलाई,15 (शेष अगली किस्त में)
बेहतरीन बचपन
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