गुरुवार, 3 सितंबर 2015

सत्रहवीं किस्तः किस्से-कहानियों का वो दौर..

चपन से ही हमें किस्से, कहानियाँ पढ़ने का शौक था। उस समय पराग, बालक आदि जैसी बाल पत्रिकाओं के हम दीवाने हुआ करते थे। तब बहराइच में पत्रिकायें मिलने का प्रमुख स्थान रेलवे स्टेशन ही था। घर से 4-5 किलोमीटर दूर होने के बावजूद हम दोनों भाई (मैं और मुझसे बड़े मुन्ना भैया) महीना शुरू होते ही अपनी जेब खर्च के लिये मिले पैसे लेकर पत्रिकायें खरीदने के लिये पैदल ही रेलवे स्टेशन की ओर चल देते थे। और पत्रिका खरीदने के बाद घर वापसी तक हमारी उन्हें पहले पढ़ लेने की चाह में रास्ते भर छीना झपटी चलती रहती। पत्रिकाओं के अलावा, हमारे स्कूल के हिंदी के श्रीवास्तव मास्साब भी हमें अक्सर खाली पीरिएड में अच्छी-अच्छी प्रेरक कहानियां सुनाते। इसके अलावा जब बच्चों का पढ़ने का मूड न होता तब भी वे श्रीवास्तव मास्साब से कहानी सुनाने की जि़द कर बैठते और बच्चों की इच्छा के सामने उन्हें भी झुकना ही पड़ता।  


माँ, बाबूजी, बड़ी दीदी, मौसी, नानी आदि से भी हमें खूब कहानियां सुनने को मिलतीं। बाबूजी की गोद के इर्द-गिर्द सोते हुए हम उनसे देर रात तक, राजा-रानी, जीव-जन्तुओं आदि की सामाजिक व जादूगरी भरी कहानियां सुनते रहते। कभी नई तो कभी वही पुरानी कहानियां। पर प्रायः बार-बार एक ही कहानी सुनने पर भी हम कभी बोर नहीं होते और उन्हें सुनते वक्त हम प्रेरणा पाने सहित ज्ञान और मनोरंजन की दुनिया में रात भर गोते लगाते रहते। बाबूजी जब कहानी सुनाने बैठते, तब हम ही क्या आस-पडा़ैस के बच्चे भी उनसे चिपक कर पूरी तन्मयता से कहानी सुनते। स्कूल से आकर पढ़ाई खत्म होने और रात के भोजन के बाद प्रायः आये दिन कहानियों का जो दौर चलता वह काफी देर तक चलता रहता। पड़ौसी भी अपने बच्चों को हमारे घर में देर रात तक छोड़कर पूरी बेफिक्री के साथ अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते। न कहीं कोई डर, न संशय। अक्सर हमें गांव के अंध विश्वास, भूत-प्रेत वाली कहानियां भी सुनने को मिलतीं। तब हम भाई-बहन आदि डर के मारे एक-दूसरे से ज़ोर से चिपके रहते। और ऐसी कहानियां सुनने के बाद जोर की टट्टी-पेशाब लगने के बावजू़द हमारी अकेले बाथरूम या टायलेट तक जाने की हिम्मत नहीं होती। 

मेरे मुन्ना भैया को तो मनगढ़न्त कहानियां सुनाने में मानों महारथ ही हासिल थी। उनकी कहानियां रोने-रुलाने वाली अर्थात अत्यन्त मार्मिक होती थीं। उन्हें सुनते वक्त मेरी आंखें नम हो आती थीं और कहानी के अंत तक तो मेरा रोते-रोते बुरा हाल हो जाता था। जब मेरा रोना नहीं रुकता तो प्रायः भैया टीवी के किसी आज के घारावाहिक की तरह ही उसका एंड भी बदल देते थे या कहानी के पात्र ही बदल कर कहानी को एकदम नया मोड़ दे देते थे। कई बार मिन्नत करने पर वह कहानी को दुखांत से सुखांत में बदल कर उसे खुशनुमा भी बना देते थे पर कहानी दूरदर्शन के किसी सोप ओपेरा की तरह लुढ़कते-पुढ़कते महीनों ख़त्म होने का नाम ही न लेती

यही हाल मेरा भी था और जब उन्हें कहानी सुनाने का मुझको  मौका मिलता था तब मैं भी उनके साथ कुछ इसी तरह का सलूक करता था। 



02 सितंबर,15 (शेष अगली किस्त में) 

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