रविवार, 13 जुलाई 2014

द्वितीय किस्तः आँखें फोड़ दें उसकी...


ये शहर और नये लोगों के बीच सब कुछ अनोखा सा था। शुरू-शुरू में जल बोर्ड के एक बड़े से अहाते में एक अदद छोटा सा अस्थाई सरकारी मकान पाने के बाद शीघ्र ही हमें एक बड़ा सा सरकारी मकान मिल गया था और हम उसमें शिफ्ट हो गये थे। पोस्ट ऑफिस के सामने और बड़ी सी जयहिंद कोठी के बगल में स्थित इस मकान के एक ओर भव्य ओंकार सिनेमा हाल था। और लगभग 2-3 फर्लांग की दूरी पर ही बड़े से पार्क के बीच अंग्रेजों के ज़माने का बना आकर्षक व काफी ऊंचा घंटाघर। वहीं चौक बाज़ार था जो बहराइच का मुख्य बाज़ार था। शहर छोटा सा था परन्तु उस समय के हिसाब से ठीक-ठाक था। हमें शहर का मिजाज़ समझने में कुछ समय ज़रूर लगा पर धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों मैं होश संभालता गया बहराइच शहर मेरी रगों में बसता चला गया। 


हम सभी को साहित्य व संगीत का शौक विरासत में मिला था। मेरे मम्मी-पापा की रूचि प्रारम्भ से ही संगीत, सिनेमा में थी। विशेषकर मेरे मझले भैया अरुण श्रीवास्तव ‘मुन्नाजी’ तो बहुत अच्छा गाते थे और उनमें बचपन से ही साहित्य की भी काफी समझ थी। यही वजह थी कि जब भी कोई मेहमान घर पर आता हमसे गाना गाने की फरमाइश ज़रूर की जाती। तुतली आवाज़ में ही सही हमें तबके अनेक फिल्मी गाने रटे रहते थे और किसी के सामने गाने में हमें ज़्यादा झिझक भी नहीं होती थी। उम्र के साथ-साथ हमारी आवाज़ भी साफ होती चली गई थी। हम उस समय नगर पालिका द्वारा संचालित जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे वहां भी हमारे गीत-संगीत का जादू चल गया था। स्कूल की प्रार्थना और जनगणमन गायन तक में हमें शामिल किये बिना बात नहीं बनती थी। उसी स्कूल में पढ़ते हुए सबसे पहले एक बार हमने छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में देशभक्ति का एक नाटक खेला था। कई स्कूलों के बच्चों को घंटाघर के प्रांगण में प्रदर्शन के लिये बुलाया गया था। सभी स्कूल अपने-अपने बच्चों की सांस्कृतिक टोली लेकर आये थे। हमने भी खूब तैयारी कर रखी थी। कार्यक्रम के समय मंच के एक ओर कुर्सियों पर बेसिक शिक्षा परिषद के वरिष्ठ अधिकारी विराजमान थे और बाकी हिस्से में सभी को अपना-अपना प्रदर्शन करना था। सामने सैकड़ों की तादाद में नगर की जनता थी। 


हमारे नाटक में एक पंक्तियां मुन्ना भैया को बोलनी थी। उसमें दुश्मन को ललकारते हुए उन्हें बोलना था, ‘कड़ी नज़रों से जो देखेगा आंखें फोड़ दें उसकी, करे जो देश पर हमला भुजायें तोड़ दें उसकी।’ पर जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने हवा में हाथ लहराने की बजाय उपनिदेशक महोदय की तरफ इशारा करते हुए बोल दिया, ‘आंखें फोड़ दें उसकी.... भूजायें तोड़ दें उसकी....।’ इस पर उप निदेशक महोदय सकपका गये थे पर पंडाल में हास्य की फुहारें छूट गई थीं। बाद में हमें इसके लिये मास्टरजी से कुछ डांट भी खानी पड़ी थी। आखिर हम बहुत छोटे थे और हमें इसका भान भी नहीं था कि हमारी ज़द में उपनिदेशक महोदय आ जायेंगे। 

                                                                                                                              (शेष  अगले एपीसोड में )

2 टिप्‍पणियां: