शनिवार, 13 दिसंबर 2014

नौवीं किस्त: जब भीख में मिले पैसों से आया बैंजोे...

स समय बहराइच के गवर्नमेंट इंटर काॅलेज में पढ़ाई से कई गुना अधिक हमारे गानों की धूम रहती थी। कोई भी फंक्शन हो, छोटा या बड़ा हमें गाने के लिये प्रमुखता से याद किया जाता था। तब कई सहपाठी हमारी गायिकी और प्रसिद्धि की वजह से ही हमसे दोस्ती करने को लालायित रहते थे। पर हम इस बात से अनजान सभी से मित्रता निभाने को खुद भी आतुर रहते थे। 

एक दिन काॅलेज में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता का आयोजन हुआ तो संगीत के मास्टर जी ने हमें भिखारी का रोल दिया। तब मैं भी इस चैलेंज को स्वीकारते हुए अपने भाई के साथ भिखारी की ड्रेस में मंच पर कूद पड़ा। भाई के हाथ में एक कटोरा था और मेरे गले में छोटी सी हारमोनियम टंगी हुई थी। परदा खुलते ही जब मैंने एक फूल दो माली फिल्म के गीत की लाइनें ‘कर दे मदद ग़रीब की तेरा सुखी रहे संसार बच्चों की किलकारी से गूंजे सारा घर-बार...औलाद वालों फूलो-फलो... अपनी मधुर आवाज़ (जैसा कि लोग बताते हैं) में शुरू की तो हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से न केवल गूंज उठा बल्कि कई श्रोतागण तो मंच पर आकर हमारी कटोरी में सिक्के व नोट ही डालने लग गयेे। और फिर क्या था देखते ही देखते हमारी कटोरी सिक्कों और रुपयों से भर कर छलकने लगी और स्टेज पर भी चारों ओर सिक्के ही सिक्के नज़र आने लगे। उस दिन हमारी काफी अच्छी कमाई हो गई थी। और बड़ी बात ये भी थी कि भिखारी की वेशभूषा में भी सबने हमें पहचान लिया था। 

अगले दिन संगीत के शौकीन हमारे प्रिंसिपल श्री वसीमुल हसन रिज़वी साहब ने हमें अपने कमरे में बुलाकर जहां सुंदर गीत व अभिनय पर हमें खूब शाबाशी दी वहीं संगीत के मास्टर जी को यह निर्देश भी दिया कि वे आइंदा बच्चों से ऐसे रोल न करायें क्योंकि हो सकता है कि कभी ये बच्चे देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या कुछ और ही बन जायें। उन्होंने मास्टर जी को यह भी सलाह दी कि बच्चों को ईनाम (भीख) के पैसे नकद न देकर उन्हें वाद्ययन्त्र खरीदकर दिया जाये ताकि उनका संगीत का शौक भी पूरा होता रहे। 

और तब उन पैसों से हमारे लिये एक सुंदर सा बैंजो बाज़ार से खरीदकर दिया गया, जिसे हम सालों बजाते रहे थे। वह हमारा पहला बड़ा ईनाम था।

(शेष अगली किस्त में)  
13 दिसम्बर,14

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