मंगलवार, 3 नवंबर 2015

बीसवीं किस्तः ऊँचे इरादों का जनाज़ा

न दिनों कक्षा 8-9 की पढ़ाई के दौरान ही पत्र-पत्रिकायें और बाल पाॅकेट बुक्स पढ़ते-पढ़ते मेरे भीतर का लेखक भी अंगड़ाइयां लेने लगा था। यद्यपि मेरे मझले भैया मुन्ना जी पहले से ही छुटपुट लेखन कर रहे थे अतः थोड़ा बहुत लेखन ज्ञान मुझे उनसे भी मिलने लगा था। उस समय छोटे आकार की बाल पाॅकेट पुस्तकें अठन्नी, एक रुपये में आसानी से मिल जाया करती थीं। और हम अपनी पाॅकेटमनी बचाकर जब न तब उन्हें खरीद लाते थे। 

इस तरह से धीरे-धीरे स्कूली पढ़ाई, संगीत और खेलकूद के बाद का हमारा बचा-खुचा समय अब लेखन और पाठन में ही बीतने लगा था। उन दिनों भूत-प्रेत, राक्षसों, राजा-महाराजाओं, जादू-टोने और परियों आदि की कहानियां खूब प्रचलित थीं। अधिकांश बाल पाॅकेट बुक्स की कहानियां इन्हीं सब के इर्द-गिर्द घूमती रहती थीं। जिन्हें पढ़ने में हमें बहुत आनंद आता था। ऐसी कहानियां पढ़ते-पढ़ते उन्हीं दिनों मैंने भी ‘अभागा राजकुमार’ नामक एक 60-70 पृष्ठों की तिलस्मी कहानी की बाल पाकेट बुक तैयार कर ली थी। मैं उसे बाजार में बिकने वाली अन्य पुस्तकों की तरह ही रंग-बिरंगी छपवाकर बाज़ार में बेंचना और ढेर सारे पैसे कमाना चाहता था पर ऐसा संभव कहां था। न किसी प्रकाशक का अता-पता, न प्रकाशन संबंधी कोई जानकारी या तमीज़। 

एक दिन मैं पुस्तकों की अपनी पांडुलिपि लेकर पिता जी के परिचित एक प्रिंटिंग प्रेस के आॅफिस ही पहुंच गया। मेरी व्यथा जानकर प्रेस वाले चाचा जी ने टालने के अंदाज़ में मुझे अगले हफ्ते कागज़ लेकर आने को कहा। फिर क्या था अगले ही हफ्ते मैं बाज़ार से 20-25 बिना रूल वाली काॅपियां खरीद लाया। उनके एक-एक करके पन्ने फाड़े और उन्हें पाकेट बुक्स के आकार में कैंची से छोटे-टुकड़ों में काटकर फिर से प्रेस वाले चाचाजी के आॅफिस जा पहुंचा। मेरे हाथों में काॅपी के कटे-फटे टुकड़े देखकर प्रेस वाले चाचाजी ने अपना माथा ही पकड़ लिया था। बाद में जब उन्होंने प्रेस और पुस्तक प्रकाशन की कुछ प्राथमिक जानकारियां मुझे दीं तब मेरे नासमझ दिल और दिमाग को पता चला कि मैंने काॅपियां फाड़-फाड़ कर अपनी सारी जमा पूंजी बर्बाद कर डाली थी और उसका रिजल्ट भी कुछ नहीं मिलने वाला था। कुछ दिनों बाद माँ-बाबू जी और बड़े भाइयों आदि से मैंने रो-गाकर और डांट खा-खाकर कुछ और पैसे इकट्ठे किये। प्रेस वाले चाचाजी के कहे अनुसार कागज़ खरीदे और पुस्तक की पांडुलिपि लेकर पुनः प्रेस जा पहुंचा। 

प्रेस वाले चाचाजी ने मुझसे महीनों प्रेस के चक्कर लगवाने के पश्चात अंततः लागत के पैसों में ही मेरी पुस्तक छाप कर मेरे हाथों में थमा दी थीं। शायद वह दिन मेरे लिये सबसे अनूठा और आनंदित करने वाला दिन था। यद्यपि पुस्तकें बेंचकर खूब पैसा कमाने का मेरा सपना पूरा नहीं हो सका था। मैंने दो-चार बुक स्टालों के चक्कर लगाये परन्तु मेरी ब्लैक एंड व्हाइट पुस्तक अपनी दुकान पर रखकर कौन दुकानदार भला अपनी दुकान की शोभा खराब करता। काफ़ी मशक्कत के बाद एक-एक रुपये में 5-10 प्रतियां कुछेक जान-पहचान वालों ने खरीदी, बाकी मुफ़्त में ही बंट गईं या इधर-उधर कहीं गुम हो गईं। मेरे ऊँचे इरादों का जनाज़ा बेशक निकल गया था पर इन सबके बावजू़द, मेरा बाल पाॅकेट बुक का लेखक कहलाने का सपना तो पूरा हो ही गया था।  

03 नवम्बर,15 
(शेष अगली किस्त में) 

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