मंगलवार, 10 नवंबर 2015

इक्कीसवीं किस्तः दीवाला नहीं दीवाली

जी हाँ? कम आय और सीमित साधनों के बीच भी तब केे त्यौहारों पर दीवाला नहीं निकलता था बस प्यार और सद्भाव में डूब कर सबके दिल हिलते-मिलते नज़र आते थे। 

सच! क्या कहने थे बचपन की उस दीवाली के। महीने भर पहले से मिलजुल कर घर की साफ सफाई, रंग रोगन और सजावट। बाज़ार तब भी मिठाइयों और खेल खिलौनों की सजावटी दुकानों से अटे पड़े रहते थे परन्तु उन मिठाइयों और खिलौनों में चीनी (चाइनीज़) की बजाय गुड़ की सुगंध और मिट्टी की सोंधी महक ही नज़र आती थी। बहराइच के घंटाघर से लेकर पूरा चौक बाज़ार दुकानदारों और खरीदारों की भीड़ से भरा होता।

हमारे घर में अक्सर दीपावली पर कोई बड़ा (उस समय के लिहाज़ से) सामान, जैसे नया सोफा सेट या बड़े आकार का रेडियो आदि ज़रूर आता और जब वह सामान कुछ समय के लिये भी घर के बाहर अहाते में रखा होता तो उधर से गुज़रने वाले उन्हें निहारे बगैर नहीं रह पाते। और कइयों के मुख से तो तब बरबस यही निकलता...‘हाय..इत्ता बड़ा सोफा सेट...हाय इत्ता बड़ा रेडियो’...। निश्चय ही कुछ लोगों के लिये तब वह अजूबे जैसा ही होता था।

हमारे घर के सामने ही बच्छराज-बाबूलाल (कपड़ों के व्यापारी) की बड़ी सी आकर्षक कोठी थी और बगल में ही भव्य और आलीशान जयहिन्द कोठी। उन सभी कोठियों पर दीपावली के अवसर पर ऊपर से नीचे तक दीपमालाओं की सजावट देखते ही बनती  थी। और जब रात्रि में वहाँ सार्वजनिक रूप से पटाखों और फुलझडि़यों का ग्रांड शो शुरू होता तब उनसे घर के लोगों के साथ ही आसपास के छोटे-मोटे (जो पैसों की तंगी के चलते पटाखे नहीं खरीद सकते थे) लोगों का भी भरपूर मनोरंजन होता। तब हम पटाखों के शोर से प्रदूषण बढ़ने के खतरों से भी अंजान रहते।

.....पर आम दिन हो या कोई तीज-त्यौहार मेरी शरारतें और पिटाई के मौके कम होने को नहीं आते। एक बार मुझ बालक ने कहीं किसी से सुन लिया कि दीवाली पर पुराने खिलौने बेंचने से लक्ष्मी जी घर में नये-नये खिलौने और मिठाइयां लेकर  आती हैं, तो इस मुए के दिमाग में बात भीतर तक बैठ गई। अब घर वालों से तो इसकी इजाज़त मिलनी नहीं थी सो खुद ही मुन्ना भैया की अगुवाई में कुछ अपने जैसे छंटे हुए दोस्तों के साथ चुपके से घर के पुराने खिलौने इकट्ठे कर डाले। और घर के बाहर ही फुटपाथ पर लगी दुकानों के बीच एक चद्दर बिछाकर बैठ गये, खिलौने बेंचने।

एक दोस्त ‘सस्ते खिलौने ले लो...सस्ते खिलौने ले लो’ की आवाज़ें लगाता जा रहा था और मैं सभी आने-जाने वाले राहगीरों को ललचाई नज़रों से घूरे जा रहा था। अलबत्ता मुन्ना भैया गद्दी संभाले हुए थे। पर नाश हो आवाज़ लगाने वाले उस पापी दोस्त का। ससुरे की आवाज़ ग्राहकों तक पहुंची हो या न पहुंची हो मेरे मम्मी-पापा तक अवश्य पहुंच गई थी। और फिर वही हुआ जो होना चाहिये था। मुन्ना भैया और दोस्त लोग तो भनक पाकर खिसक लिये पर खिलौना बेंचते हुए रंगे हाथों पकड़ा मैं ही गया और फिर मेरी दीपावली तो सार्वजनिक रूप से मननी ही थी।

......उन दिनों त्यौहारों पर लम्बी छुटिटयों के चलते देर रात तक त्यौहार मनाने के बाद अगले ही दिन सुबह- सुबह स्कूल या दफ्तर जाने की  फिक्र भी नहीं होती थी। और दीपावली से भैया दूज/कलम-दवात पूजा तक कागज़, कलम को हाथ न लगाने वाले त्यौहारी नियम-शर्तों के चलते, लिखने-पढ़ने की छूट भी होती थी। ऐसे में त्यौहार का मज़ा कुछ और ही बढ़ जाता था....। 

दीपावली 11 नवम्बर,2015  (शेष अगली किस्त में) 

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