शनिवार, 20 मई 2017

चौबीसवीं किस्तः बहराइच से मोतिहारी तक.

पने ननिहाल के प्रति प्रेम और मोह किसमें नहीं होता। विशेषकर तब के हमारे बचपन में तो यह कहीं अधिक ही होता था। यही वजह थी कि गर्मी की छुट्टियाँ होते ही हमारा मन अपने ननिहाल; मोतिहारी (चंपारण, बिहार) जाने को बेताब हो उठता। वही चंपारण, जिसके सत्याग्रह को भारत की जंगे-आजादी के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। कहना न होगा कि 15 अप्रैल,1917 को इसी आंदोलन के चलते भारतवासियों ने मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ के तौर पर पहचाना और यह भी कि  इसी चंपारण से महात्मा गांधी, अहिंसा को एक कामयाब विचार के रूप में रोपने में सफल हुए थे। 


मोतिहारी में हमारी आधा दर्जन के करीब एक से बढ़कर एक खूबसूरत और अत्यधिक पढ़ी-लिखी मौसियां थीं, जो हमारे लिये अपनी माँ-सी ही थी। उनकी गोद और छांव में हमने अनेक किस्से-कहानियों का आनन्द भी उठाया था। नाना जी के आकस्मिक स्वर्गवास के बाद उनके द्वारा छोड़ी गई चल-अचल सम्पत्ति के दम पर और अपनी सूझबूझ से ही नानी ने ही उन्हें पढ़ा-लिखाकर किसी लायक बनाया था, और इतने बड़े कुनबे को संभाला था। मौसियों की शादी के समय भी हम दल बल सहित अपने ननिहाल में अवश्य मौजू़द रहते थे। बहराइच से मोतिहारी तक की टुकड़ों में बंटी सुविधाहीन अनारक्षित लम्बी और कठिन बस और रेल की यात्रा भी ननिहाल जाने के उत्साह में उन दिनों कभी हमें उबाऊ या दुरूह नहीं लगी। और आज की एसी और सुविधा संपन्न आरक्षित यात्रा से कहीं अधिक लुत्फ हम अपनी भाप वाले इंजन की छुक-छुक करती उस यात्रा में भाई-बहनों और माता-पिता के साथ उठा लेते थे।



मोतिहारी में बड़ी मौसी के हमारे आस-पास की उम्र के बच्चे; रीता दीदी, राकेश भैया, मधु और बबलू आदि तब हमारे खास दोस्त हुआ करते थे। और एक दूसरे के प्रति हमारी दीवानगी देखते ही बनती थी। गर्मियों की छुट्टियों में धूप में ही हम दूर दूर तक फैले अपने खेत, खलिहान पर तितलियों के पीछे खूब दौड़ लगाते। ऐसे ही रात में हम जुगनुओं के आगे-पीछे चक्कर काटते।  कभी हम नाना जी के हिस्से की नदी के किनारे इकट्ठे होकर मछली, घोंघे या केंकड़े बटोरते। आज बेशक एक चींटी मारने में भी हमें दर्द होता हो और हम जीव-जन्तु हितैषी होते हुए पूर्णतः शाकाहार अपना चुके हों पर तब कैसी भी मछली, झींगा, घोंघा, केकड़े आदि तक आग में ऐसे ही पकाकर निगल जाने में हमें तनिक भी झिझक महसूस नहीं होती।

बाल्यावस्था में जब हम अंतिम बार बहराइच से मोतिहारी अपने ननिहाल गये थे, तब वापसी के समय हम सभी भाई-बहन अपनी नानी, मौसियों और मौसेरे भाई-बहनों आदि से लिपट-लिपट कर बहुत रोये थे। यही नहीं चलते वक़्त हम ननिहाल की दरों-दीवारों से भी खूब लिपटे थे और उन्हें बार-बार चूमते रहे थे। शायद हमें इस बात का आभाष था कि बढ़ती उम्र और पढ़ाई-लिखाई की व्यस्तताओं के चलते या अत्यधिक बूढ़ी हो चुकी नानी के न रहने पर हमारा ननिहाल आना जाना उस रफ्तार से नहीं हो पायेगा जैसे पिता जी के चलते उन दिनों हो जाता था। 


20 मई,2017 (शेष अगली किस्त में)


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