बहराईच का घंटाघर कई मायनों में
काफ़ी अलग हटकर था। अंग्रेजों के समय के इस भव्य घंटाधर की छटा, विशेषकर शाम को खूबसूरत
पेड़ पौधों, फूलों और रंगीन फव्वारे के साथ देखते ही बनती थी। बड़े से पार्क के बीच
बना भव्य और कलात्मक घंटाघर खासा आकर्षण का केंद्र था। पार्क के आजू-बाजू
भीड़-भाड़ वाले बाज़ार इसके आकर्षण को और भी बढ़ाते थे। यह पार्क हमारे घर और
भव्य जयहिन्द कोठी से कुछ ही दूरी पर था। घंटाघर पार्क के मंच पर होली जैसे
त्यौहारों पर मुख्यतः लखनऊ के आर्केष्ट्रा के साथ भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम और उसमें मेरे गानों
का यार-दोस्तों और अन्य बहराईच वासियों को खासा इंतज़ार रहता था। साथ ही इसी मंच पर अक्सर देश भर के अनेक नामी गिरामी कवियों का भी जमावड़ा होता था।
घंटाघर के शीर्ष
पर लगी भव्य घड़ी के घंटों की गूंज दूर तक सुनाई देती थी। अत्यन्त पुरानी वह घड़ी जब
कभी खराब होती तो उसके लिये बाहर से कारीगर बुलाये जाते। घड़ी ठीक करने और किन्हीं
अन्य कार्यों के चलते एक बार एक अधेड़ मुस्लिम कारीगर का भी वहां कुछ समय के लिये
आना हुआ था। उन्हें बच्चों से विशेष लगाव था अतः कुछ ही दिनों
में उन्होंने वहां एक बाल क्लब की स्थापना कर डाली थी। प्रत्येक शाम को पार्क में
आसपास के विभिन्न जाति धर्मों के बहुत सारे बच्चे इकट्ठा होते और उनके कुशल
निर्देशन में अनेक शारीरिक व्यायाम टाइप तथा मनोरंजक खेलों को अंजाम दिया जाता।
उनकी शिक्षाप्रद, आपसी सद्भाव और प्रेरणा से भरी बातें तथा बच्चों के प्रति
प्रेम-व्यवहार भी ऐसा था कि बच्चे उनके मोहपाश में बंधते चले गये थे। मेरे दोस्तों
में उन दिनों शाहिद, अशोक, रवि, रमेश, कमल, अजय, सुरेश और हरीश आदि काफी करीबी हुआ करते थे।
उन्हीं दिनों मेरे पड़ोसी मित्र अशोक के शिवा नामक एक कज़न से भी मेरी
अच्छी भली जान-पहचान हो गई थी। वह लखनऊ से हर बार गर्मी की छुट्टियों में अपनी मौसी
के यहां आया करता था। तब लखनऊ मेरा पसंदीदा शहर हुआ करता था। और लखनऊ के लोग मेरे
लिये बेहद महत्वपूर्ण भी होते थे। अतः एक ओर लखनऊ के आकर्षण तो दूसरी ओर शिवा के
बातचीत और व्यवहार के लखनवी अंदाज़ ने मुझे शीघ्र ही उसका मुरीद बना दिया था। वह भी
मेरी गायकी से प्रभावित होकर मेरा खास दोस्त बना गया था। वह जब कभी थोड़े समय के
लिये भी बहराईच आता मुझसे मिले बिना नहीं रह पाता। हम साल भर की छूटी हुई
कही-अनकही बातें उन्हीं गर्मी की छुट्टियों में एक दूसरे के साथ शेयर करके निपटाते थे।
जिस वर्ष गर्मी की
छुट्टियों में घंटाघर के पार्क में बाल क्लब की स्थापना हुयी थी, उस वर्ष शिवा और
हम सभी दोस्तो ने नये-नये खेलों के साथ हर शाम को आपसी प्रेम-भाईचारे के साथ खूब इंजाय किया था। परन्तु बाल
क्लब के संस्थापक के काम ख़त्म कर वापस अपने शहर जाते ही घंटाघर और बाल क्लब की
रौनक गुम होकर रह गई थी। उनके जाने के बाद फिर किसी ने हम बच्चों की सुधि भी
नहीं ली थी और हमारे लिए घंटाघर भी वीरान होकर रह गया था ।
21 जून,2017 (शेष अगली क़िस्त में)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें